tag:blogger.com,1999:blog-12506288681984877312024-03-18T20:00:18.225-07:00द फिल्मास्टिक अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-64930253016767334022014-10-16T05:49:00.000-07:002014-10-16T06:02:33.668-07:00मेरी कॉम: एक मॅग्नीफिसेन्ट पंच जमाने के जबड़ों पर!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMlbTB-xhnZmhn5npjK-i8NDWulvl-ySPGFY7nseRomWaTYY67HLDT3PsOwmrY2nzE7_LcFLduUUIz2la4bmGZZbbeiq8gyDK3sK0FwDJ8zLFKp4IibyaMiVoU8seIqWwfK8O0Lh4IQ7o/s1600/BN-EL460_ikom_G_20140909064813.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMlbTB-xhnZmhn5npjK-i8NDWulvl-ySPGFY7nseRomWaTYY67HLDT3PsOwmrY2nzE7_LcFLduUUIz2la4bmGZZbbeiq8gyDK3sK0FwDJ8zLFKp4IibyaMiVoU8seIqWwfK8O0Lh4IQ7o/s1600/BN-EL460_ikom_G_20140909064813.jpg" height="213" width="320" /></a>उसके हाथ कांपते हैं मगर थमते नहीं! वह खुद से और अपनी परिस्थितियों से लगातार लड़ती है. अपने और पिता के बीच के रिश्ते से, कोच की नाराज़गी से, फेडरेशन पॉलिटिक्स से, परिवार की परेशानियों से, नॉर्थ-ईस्ट की आबो-हवा से और इन सब से ज्यादा खुद के एक महिला होने से. क्योंकि आज यह सामाजिक, मानसिक और शारीरिक रूप से मान लिया गया एक रुखा सच है! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन यहीं से शुरू होती है पांच बार की वर्ल्ड चैम्पियन मेरी कॉम की असल कहानी. मणिपुर की राजधानी इम्फ़ाल से क़रीब 60 किलोमीटर दूर कंगाथाई कबायली ‘कॉम’ जाति के 32 परिवारों के एक छोटे से गांव में रहने वाली लड़की की कहानी. जो इम्फ़ाल के अपने स्कूल तक जाने के लिए साइकिल सफर करने के लिए तैयार हो पर किसी भी हार के लिए नहीं. है न एक दम फिल्मी! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसी दर्जनों बातें हैं जो आपको एक दम फिल्मी लग सकती हैं पर मैरी के लिये यह कड़वी सच्चाई थी. मैरी ने अपनी ज़िन्दगी से जुड़ी ऐसी बातों का जिक्र ‘अनब्रेकेबल’ नाम की ऑटोबायोग्राफी में बहुत बेबाकी और ईमानदारी से किया है. जो उन्हें ‘मॅग्नीफिसेन्ट’ बनाता है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फिल्म मेरी कॉम की कहानी भी कुछ बेहद कठिन परिस्थितियों से शुरू होती है. जब मेरी अपने जुड़वां बच्चों की प्रेगनेंसी के कारण सबसे मुश्किल परिस्थितियों से रूबरू रहती हैं. लेकिन जब आपका जुनून अपने हालात को पटखनी देने पर आमादा हो तो मैरी वह सबकुछ पाते हैं जो मणिपुर की उबड़-खाबड़ पहाड़ियों को पार करके हासिल होती हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तभी तो दमखम और पुरुषों के अधिपत्य वाले खेल में मैरी अपने जुनून के दम पर वह स्थान पाती है जो देश के पुरुषों ने भी कभी नहीं पाया. मेरी कॉम के जुनून को आप उनके द्वारा ऑपरेशन थिएटर के टेबल पर डॉक्टर से किये रियेक्ट से समझ सकते हैं. जब वह बेहोशी के आलम में पूछती हैं कि “सिज़ेरियन के बाद मैं बॉक्सिंग कर पाऊंगी न?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जो भी हो फिल्म का पहला भाग जहां युवा मेरी के संघर्ष और अपने सपनों को पाने की कहानी कहता है वहीं फिल्म का दूसरा भाग स्त्री जीवन की सबसे कड़वी सामाजिक हकीकत को धीरे-धीरे नुमाया करता है. जब मैरी फुटबाल कोच ऑनलर के प्रेम निवेदन से शादी तक का सफर तय कर चुकी होती है. वह भी अपने ‘कोच सर’ के विचारों के खिलाफ. यहां मेरी स्त्री स्वतन्त्रता और उससे जुड़े फैसलों से बाहर आकर नई स्त्री की परिधि गढ़ती हैं. लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं. जब अपने भीतर की बेचैन लड़की जिसका महत्वाकांक्षी होना उसकी शख्सियत का सबसे खराब पहलू माना जाता है, प्यार में पड़ी हुई औरत जिसे घर उतनी ही शिद्दत से चाहिए जितनी शिद्दत से मेडल चाहिए, एक मां जो अपने करियर के सबसे अहम मुकाम पर अपनी सबसे बड़ी फैमिली क्राइसिस भी झेल रही होती है, वो भी परिवार से दूर रहकर. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यहीं से शुरू होती है एक अनसुलझी परिस्थितियों की दास्तां. जहां पति-पत्नी की जिम्मेदारियों संग बाप-बेटी के तल्ख रिश्तों के अलावा, एक महिला शरीर द्वारा अपने बच्चों को पाने के एवज में दी गयी कुर्बानियों की इबारत भी साथ गुंथी-बुनी होती है. जबकि खेल-फेडरेशनो से जुड़ी, टुच्ची पॉलिटिक्स की संढाध अलग दम घोंट रही होती है. ऐसे में मैरी के पति ऑनलर एक मजबूत साथी के किरदार में उभरते हैं. ऑनलर एक सच्चे दोस्त और हमसफर दोनों ही रूप में मेरी कॉम को बैक स्टेज से अपना कन्धा देते हैं. जो भारतीय पुरुषों के लिए भी एक सबक है. जो मेरी को एक बार फिर बॉक्सिंग की दुनिया में लौटने में जरूरी मदद साबित होता है. यानी मैरी अपनी सेकेण्ड इनिंग में भी चैम्पियन बन कर वापसी करती है. जो आज भी जारी है. ठीक वैसे ही जैसे इंचियोन में हो रहे 17वें एशियाड में मेरी कॉम अपनी राउन्ड्स में जीत दर्ज कर रही हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<h3 style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #990000;">मेरी, प्रियंका और फिल्म</span></b></h3>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
निर्माता संजय लीला भंसाली और उमंग कुमार की मेरी के किरदार के लिए प्रियंका चोपड़ा को साईन करने पर बहुत आलोचना हुई थी. लोग फिल्म में मणिपुरी एक्ट्रेस को देखना चाहते थे. ग्लैमरस प्रियंका चोपड़ा जैसी हीरोईन भला सीधी-सादी मेरी कॉम की तरह दिख भी कैसे सकती है? लेकिन फिल्म में प्रियंका चोपड़ा ने अपने अभिनय से सबकी बोलती बंद कर दी है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मनाली की वादियों में कम-बैक की तैयारी करती मेरी कॉम के रूप में प्रियंका का शरीर वाकई किसी फाइटर का शरीर लगता है. पूरी फिल्म में प्रियंका के चेहरे पर भाव आते-जाते रहते हैं. एक पल के लिए भी उनकी आंखें खुद से अलग नहीं होने देतीं. जिद्द, जोश और जुनून से लरबरेज उनकी आंखें कभी-कभी कमजोर भी दिखती हैं लेकिन अपने चेहरे में मैरी के चेहरे को बड़ी सहजता से घुला-मिला लेती हैं. वहीं दर्शन कुमार, रॉबिन दास और सुनील थापा अपने-अपने किरदारों को बहुत आसानी से जीते दिखे. . पर फिल्म के संवाद कई जगह बेहद ढीले जान पड़ते हैं. बावजूद इसके कि फिल्म के कई हिस्सों में मेरी का किरदार अपने संवाद से मजबूत बन कर उभरता है. वैसे प्रोडक्शन डिज़ाईनर और आर्ट डायरेक्टर रहे चुके फिल्म निर्देशक उमंग अपने काम में बेहतर जान पड़ते हैं, खास कर डिटेलिंग में. क्योंकि फिल्म का एक भी हिस्सा मणिपुर में नहीं शूट हुआ है, लेकिन फिल्म में सबकुछ मणिपुर सा लगता है. मैरी के मां-बाप इमा और इपा की पोशाकें, कोच सर का बदहाल जिम, ट्रेनिंग सेंटर और यहां तक की फिल्म की पूरी आबो-हवा.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3lfkqb7Quio-xqFUhZeE4Q86JrTk9gkbIKzdp7UuBKvBr3XgeLQeO_P5LrEHUr31x8JYkUFlEBBfcgvsJQnRGYhWn_msmNzJTOiRUreT7y5zza_rG842BVUjXMq02YF4UqbHclOh9vWs/s1600/mary-kom-cut-e1405680424902-415x260.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3lfkqb7Quio-xqFUhZeE4Q86JrTk9gkbIKzdp7UuBKvBr3XgeLQeO_P5LrEHUr31x8JYkUFlEBBfcgvsJQnRGYhWn_msmNzJTOiRUreT7y5zza_rG842BVUjXMq02YF4UqbHclOh9vWs/s1600/mary-kom-cut-e1405680424902-415x260.jpg" height="200" width="320" /></a></div>
<h3 style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;"><b>‘मेरी’ को अभी इससे भी लड़ना है! </b></span></h3>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
किसी भी भाषा में बनी फिल्म अच्छी या बुरी हो सकती हैं. इसका मूल्यांकन फिल्म के गुण-दोष पर होना चाहिए, भाषा पर नहीं. लेकिन यह भी सच है कि भाषा और संस्कृतियों का अलगाव बहुत पुराना रहा है! कुछ ऐसे ही कारणों से मणिपुर के लोग अपनी माटी में जन्मी मेरी कॉम की फिल्म को नहीं देख पाये क्योंकि पिछले 14 साल से उग्रवादी गुटों ने मणिपुर में हिंदी फिल्मों पर प्रतिबंध लगा रखा है. ये संगठन मानते हैं कि उनकी संस्कृति को हिंदी फ़िल्में ख़राब करती हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मणिपुर में यह हालात हमेशा नहीं थे. यहां हिंदी फिल्में और गाने, दोनों ही बेहद पसंद किये जाते थे. आज से लगभग तीस साल पहले की फिल्म ‘डिस्को डांसर’ का गाना यहां काफी लोकप्रिय रहा है. मणिपुर में अंतिम बार जो हिंदी फिल्म सिनेमाघर में लगी थी, वह संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ थी. ऐसा नहीं है कि मणिपुर से बॉलीवुड का रिश्ता नहीं रहा है. मणिपुर की अभिनेत्री सुरजा बाला हिजाम तीस से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुकी हैं. लेकिन जो काम फिल्म मेरी कॉम ने किया है वह अभी तक देश का नेतृत्व भी नहीं कर पाया था. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पर इसका प्रभाव और भी ज्यादा हो सकता था. मेरी कॉम में जो भूमिका अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने निभायी है, वह पहले मणिपुर की अभिनेत्री लिन लैशरम को निभानी थी. वह तीरंदाजी के जूनियर वर्ग में राष्ट्रीय चैंपियन रह चुकी हैं. विदेश में पढ़ी हैं. उन्होंने हिंदी फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में छोटी सी भूमिका भी अदा की थी. बाद में तय हुआ कि मेरी कॉम की भूमिका प्रियंका चोपड़ा ही निभायेंगी. इस फैसले पर कई नजरिये हो सकते हैं. अगर प्रियंका चोपड़ा के बजाये यह फिल्म लिन लैशरम को मिलती तो हो सकता था, मणिपुर और शेष भारत में कोई ऐसी खिड़की खुल जाने की गुन्जाइश बनती जिससे सौहार्द और एकजुटता की हवा बेधड़क हो कर आ-जा सकती. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
खैर, आज फिल्में कला माध्यम से ज्यादा कार्पोरेट कल्चर से गहरे जुड़ी हैं. जो उसे बाजार के बावस्ता चलने पर मजबूर करती है. लेकिन बॉलीवुड को आज टेक्नोलॉजी के साथ-साथ सुचना-क्रांति की राजनीति भी हॉलीवुड से सिखने की जरुरत है. क्योंकि आज देश को मनोरंजन और फायदों से ज्यादा, बहुत-कुछ और की भी जरुरत है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>-अमृत सागर</b> </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://www.facebook.com/roobaruduniya?ref=ts&fref=ts" target="_blank">रूबरू दुनिया </a> के <span style="color: #990000;">'द फिल्मास्टिक' </span>कॉलम से-</div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-21312530817485546372014-10-03T07:29:00.001-07:002014-10-03T07:41:45.477-07:00हैदर: चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGVSHnRJjirRpXOiVzOOiXb2uwF-Dq0FWb07wM_WFlQX58c1YgzLsKdIvgjqQvB6K-swwQVvIj0-63KisFarXCu5623f-wJJb_-zvXiL_0d5fUD5Lw0JMxfyHlTTIHa18yWGwUWca5Y5s/s1600/Shahid+Haider+Bismil.png" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGVSHnRJjirRpXOiVzOOiXb2uwF-Dq0FWb07wM_WFlQX58c1YgzLsKdIvgjqQvB6K-swwQVvIj0-63KisFarXCu5623f-wJJb_-zvXiL_0d5fUD5Lw0JMxfyHlTTIHa18yWGwUWca5Y5s/s1600/Shahid+Haider+Bismil.png" height="166" width="320" /></a></div>
<i style="background-color: white;"><span style="color: blue;">गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले<br />चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले<br /><br />क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो</span></i><br />
<div>
<i style="background-color: white;"><span style="color: blue;">कहीं तो बह्र-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले</span></i></div>
<div>
<br /></div>
<div>
हैदर के अब्बा डाक्साहब जब-जब फैज के ज़िंदाँ-नामा को गुनगुनाते हैं फिल्म <a href="https://www.facebook.com/TheHaiderMovie">हैदर</a> देखने वालों की सांसे 'झेलम' हो जाती हैं! जो आज सिर्फ और सिर्फ सुर्ख धसकती 'लाल' रेत से अटी पड़ी है. जिससे निजात की बेकार कोशिश में नायिका अर्शी(श्रद्धा कपूर) को अलीगढ़ से लौटे नायक से कहना पड़ता है कि 'ये(फौजी) जानते ही नहीं कि तुम मिलटेंट नहीं पोएट' हो!<br />
शायद! तभी 'हैदर' फिल्म से ज्यादा एक कविता सी लगती है! जो हैदर की जुबान पर पहले हाफ तक सिर्फ चुप्पी की हिजाब ओढ़े मिलती है तो दुसरे हाफ में अचानक से चल जाने वाली क्लास्निकोव की गोली!<br />
<br />
जैसे उस आवाज को सुनकर उसकी अम्मी जान गजाला(तब्बू) डाक्साहब से पूछ रही हों कि 'किस तरफ हैं आप'? जबकि इस बात का जवाब दोनों ही जानते थे कि 'जब दो हाथी लड़ते हैं तो सबसे ज्यादा घास ही मसली जाती है.' लेकिन होता सबकुछ वैसा ही है! जिसका डर फिल्म के शुरू होने के पहले ही आपके ज़ेहन में पेवस्त हो चुका होता है! यानी शेक्सपियर का 'हेमलेट'...<br />
अपने चचा खुर्रम(मेनन) के राजनीतिक गिलाफों के कारण 'ब्रिटिश भारत के क्रांतिकारी उर्दू कवियों' पर शोध करने वाला एक पोएट, मिलटेंट बन जाता है! क्योंकि दोनों ही कश्मीर में आज 'ऊपर खुदा है और नीचे फौज!' बस इस हाड़ कंपाती, जहरीली हवाओं को कोई थामता है तो वह है अर्शी और हैदर का इश्क जो पूरी फिल्म में सफ़ेद बर्फ के साथ देते हुए शुरूआत से अंत तक सरमायेदार रहती है.<br />
<br /></div>
<div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7QBQZyi8K_KID5F9ah1bsh71E3eGguTq2gRRc_Ieuuuq7avhWW1p8TwNbAO6lJexVSBjgY6OkaDbbbOE_mDIITrS_w7LYgKC-FGllnUiByPaBg8Zr1LUJTV3dOp4phBFkywRExG5GUfo/s1600/haider_650_092914030853.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7QBQZyi8K_KID5F9ah1bsh71E3eGguTq2gRRc_Ieuuuq7avhWW1p8TwNbAO6lJexVSBjgY6OkaDbbbOE_mDIITrS_w7LYgKC-FGllnUiByPaBg8Zr1LUJTV3dOp4phBFkywRExG5GUfo/s1600/haider_650_092914030853.jpg" height="110" width="200" /></a></div>
<div>
फिल्म विशाल भारद्वाज के नजरिये से दशकों से मसली जाती कश्मीरी आवाम की एक दहकती मगर अधूरी कहानी कहती है! जो 'मैं हूं कि मैं नहीं' के सवाल में लगातार उलझती जा रही है! और गैर कश्मीरी दर्शक फिल्म के एक दृश्य पर खुद सवाल होने को मजबूर हो जाते है! जब फिल्म में रूह्तास(इरफान) अपने घर के बाहर ठिठके बाशिंदे को उसके ही घर में तलाशी लेकर घुसाता हैं, यह कहते हुए कि 'कश्मीर में लोग तलाशी के इतने आदी हो गए हैं कि अपने घर में भी बिना तलाशी, घुसने में डरते हैं.' और हैरत से मुंह खुला-खुला रहा जाता है जब एक मां अपने बेटे को पढने भेजने के लिए अपने सर पर बंदूक रख लेती है. ओह! खौफ और कश्मीर! </div>
बशारत पीर और विशाल का साथ एक ऐसी पटकथा को जन्म दे गया है जिसको देखने के बाद आप घंटों तक कुछ-कुछ सोचते रहेंगे पर निश्चित ही कश्मीर की तरह. आपके हाथ कोई ओर-छोर नहीं आता! क्योंकि आज दर्शन और कश्मीर के दरीचों से यथार्थ और मौत वैसे ही झांकती है! जैसे जन्नत की वादियों में 'हाफ विडोज' जो तब तक 'पूरी' नहीं होती जब तक अपने शौहर या उसकी बॉडी को नहीं देख लेती! जबकि वादी में गायब हुए हजारों कश्मीरियों के लिए यह लगभग नामुमकिन है! <br />
<br />
शायद तभी यह फिल्म वादियों को एक ऐसे नजरिये से देखने का मौका देती है जिसे सीधी आँखों से नहीं देखा <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw94QdUolV1U3e1BJL36Er2knwaVBb20WvCuDtz0HLJJTxPbvpen2HN4fEIgh51EuHluxubjExaaUyoOWJ3CpiK8kbfyHnNYM94mD3uvuCIhd8SPEMozMx9VJBo55WTATOtQumUUL-nv8/s1600/shahid-kapoor-shraddha-kapoor-during-shooting-of-film-haider-at-dal-lake-in-srinagar_138422513820.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw94QdUolV1U3e1BJL36Er2knwaVBb20WvCuDtz0HLJJTxPbvpen2HN4fEIgh51EuHluxubjExaaUyoOWJ3CpiK8kbfyHnNYM94mD3uvuCIhd8SPEMozMx9VJBo55WTATOtQumUUL-nv8/s1600/shahid-kapoor-shraddha-kapoor-during-shooting-of-film-haider-at-dal-lake-in-srinagar_138422513820.jpg" height="170" width="200" /></a></div>
जा सकता! क्योंकि पूरा 'कश्मीर एक कैदखाना हो चूका है! पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए भारत सरकार के प्रायोजित चरमपंथ को भी फ़िल्म ने बड़े बेबाक तरीके से उठाया है. ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में सलमान के प्रशंसक दोनो 'सलमांस' अपनी असल भूमिका में पूरी तरह एक सामान्य असलहों की तरह क्रूर होते हैं. जो शुरू में थोडा हास्य पैदा करते हैं पर असल में वह मुखबीर होते हैं. ठीक वैसा ही एक और प्रयोग फिल्म के विमर्श को एक नई ऊंचाई देता है! अफ्सपा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) की तर्ज पर गढ़ा गया 'चुत्जपा' जो एक दुस्साहसी विरोध दर्ज कराने जैसा होता है! सरकारी एक्ट पर ऐसा तंज शायद ही किसी बॉलिवुड की फिल्म में दिखा हो!<br />
<br />
खैर! कुछ दृश्यों को छोड़कर वादी की सिनेमेटोग्राफी भी फिल्म के संगीत की तर्ज पर अचम्भित करती है. थियेटर के तर्ज पर रचा गया 'बिस्मिल' गाना आपको अपने नृत्य शैली और मेटाफर से एक सर्द एहसास से भर देता है. तो वहीं 'झेलम', 'खुल कभी तो' और 'दो जहाँ' अपने बोलों के साथ अपने संगीत से निरुत्तर कर देते हैं.<br />
<br />
शेक्सपियर के हेमलेट के लिए बस इतना ही कि अगर भारत में यह कहीं भी उकेरी जाने की हक़दार है तो वह <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1D60JCdb-UrfyP1bYN1-A1qoY8vFJvS7y9v7VFR5dkO7UMBes0EdcZmkpkPbosKZxvF1d7zMPYv2JrAagtLGl56etpVqx90kCO6EvjPrRy4XdjS71JIGz-0msDcRAQGDz5gAtYzz0O1E/s1600/shahid-haider-trailer1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1D60JCdb-UrfyP1bYN1-A1qoY8vFJvS7y9v7VFR5dkO7UMBes0EdcZmkpkPbosKZxvF1d7zMPYv2JrAagtLGl56etpVqx90kCO6EvjPrRy4XdjS71JIGz-0msDcRAQGDz5gAtYzz0O1E/s1600/shahid-haider-trailer1.jpg" height="140" width="200" /></a></div>
निश्चित ही कश्मीर है! सिर्फ कश्मीर!<br />
<br />
जिसके दरीचों में फैज की लाइने सर्द हवाओं सी दाखिल होती हैं_____ और सनसनाती हैं!<br />
<br />
<br />
<span style="color: blue;"><i>_हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब<br /><br />गिरह में लेके गिरेबाँ का तार तार चले___चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले!</i></span></div>
<div>
<br /></div>
<div>
<b><br /></b></div>
<div>
<b>- अमृत सागर </b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1D60JCdb-UrfyP1bYN1-A1qoY8vFJvS7y9v7VFR5dkO7UMBes0EdcZmkpkPbosKZxvF1d7zMPYv2JrAagtLGl56etpVqx90kCO6EvjPrRy4XdjS71JIGz-0msDcRAQGDz5gAtYzz0O1E/s1600/shahid-haider-trailer1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br /></a></div>
</div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-10066736508692465002014-09-28T05:24:00.003-07:002014-09-28T05:41:27.823-07:00मैं हूँ और रहूंगी !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h3 style="text-align: left;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqLUuKePP52BHitYALQ_0KzsRHXKKp-PKJs2gzGSaN2o_4b89Nl5xglh00ybCUSN28plJbpr7dc26XB97Ryar149Q95C_YEbJDtcUG0lnXfH-aYX4oCINEzMP9EByhyphenhyphentcYe9DiZ9sGNBw/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqLUuKePP52BHitYALQ_0KzsRHXKKp-PKJs2gzGSaN2o_4b89Nl5xglh00ybCUSN28plJbpr7dc26XB97Ryar149Q95C_YEbJDtcUG0lnXfH-aYX4oCINEzMP9EByhyphenhyphentcYe9DiZ9sGNBw/s1600/images.jpg" /></a><span style="color: #990000;">जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘क्वीन’ बन चुकी स्त्रियाँ अब लाइफ के ‘हाइवे’ पर अकेलेदम चलने वाली “मर्दानी” के किरदार में हैं– वह आज खुलकर कहती हैं.. मैं हूँ और रहूंगी !</span></h3>
<br />
<div style="text-align: justify;">
भले यह महज एक संयोग हो कि इक्कीसवीं सदी की स्त्री को रेखांकित करती फिल्म क्वीन में कंगना रनौत जिस किरदार को जी रहीं थीं उसका नाम भी ‘रानी’ था और उसके कुछ महीनों बाद ही एक और ‘रानी’ को ध्यान में रखकर इंडस्ट्री का सबसे बड़ा प्रोडक्शन हॉउस यशराज बैनर; अपनी ही बनाई लीक तोड़कर फिल्म बनाता है- मर्दानी. हम इस बातचीत में ‘हाइवे’ की ‘वीरा’(आलिया भट्ट) को भी शामिल कर सकते हैं. जिसके मुख्य किरदार का नाम भी ‘वीर’ शब्द का स्त्री संस्करण सा लगता है. लेकिन हो-हल्ला मर्दानी नाम पर ज्यादा हुआ. जिसका कारण मर्द से बना मर्दानी शब्द है. संभवतः मर्दानी शब्द का सबसे पहला प्रयोग शुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मी बाई के लिए लिखे काव्य ‘खुब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली...’ में किया था. इस काव्य में भी एक रानी के लिए ही मर्दानी शब्द का प्रयोग किया गया जाता है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmJ_vQ3dO-zyxqAgLa9Y7eATDU8pro7QrlCABhJYzmsPlZa1WBuB4_1ULcPHpl94cNEU6AAdh2U2gyzS3OAIefLj_ezLdmALa5mN64osROB65_dslrWcUKPK7gtwih4aDHXkpObMCPbDs/s1600/mardaani_650_082214050114+(1).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmJ_vQ3dO-zyxqAgLa9Y7eATDU8pro7QrlCABhJYzmsPlZa1WBuB4_1ULcPHpl94cNEU6AAdh2U2gyzS3OAIefLj_ezLdmALa5mN64osROB65_dslrWcUKPK7gtwih4aDHXkpObMCPbDs/s1600/mardaani_650_082214050114+(1).jpg" height="110" width="200" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
शायद! तभी ऐसी फिल्मों के रिलीज होते ही विमर्शों के खाँचें खोल दिये जातें हैं और ‘मर्दानी’ के हवाले से यह मान लिया जाता है कि स्त्री इस ज़माने में भी मर्द जमात के पूर्वाग्रहों से आजाद नहीं हो सकती. यह विमर्शों की मार्केटिंग है. पर यह भी सच है कि आज के दौर में भी विमर्शों के सभी कारक और कारण खुद को बाहुबली समझने वाले पुरुष जमात के पास ही है. तभी तो ‘हाइवे’ का महाबीर(रणदीप हुड्डा) हो या क्वीन फिल्म की रानी का मंगेतर विजय(राजकुमार राव); दोनों फिल्मों में कहानी की शुरुआत और कसावट; पुरुष अस्तित्व के सहारे ही आगे बढती है. लेकिन मर्दानी को छोड़ अन्य दो फिल्मों में एक बात समान है कि नाम से लेकर वैचारिक विरोध की पृष्ठभूमि तक मर्दों के इर्दगिर्द ही बुनी गयी है. कारण ‘क्वीन’ जैसा शब्द भी ‘किंग’ के अस्तित्व की पुरजोर पुष्टि करता है. पर मर्दानी के कथानक में परजीविता नहीं स्वअस्तित्व की अनुभूति ज्यादा स्पष्ट होती है. ‘मर्दानी’ की कहानी स्त्री के अपने अस्तित्व से कहीं समझौता नहीं करती. बल्कि देह व्यापार की परतों में सबसे भीतरी तहों को खोलती हुई एक भोथरी सच्चाई से हमें रू-ब-रू कराती है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सेक्स के रॉ मटेरियल के लिए यूज किये जाना वाला भारत हर आठ मिनट पर अपनी एक बच्ची या युवती को लापता होते देखता है. निर्देशक प्रदीप सरकार ने इस इश्यू को ध्यान में रखकर गोपी पुथरन की कहानी पर 'मर्दानी' बनाई है लेकिन फिल्म के हर मोड़ पर स्त्री के बदलते स्वरूप को बेहद बारीकी से सपोर्टिंग इफेक्ट्स की तरह मर्ज किया गया है. जहाँ वह कहती है ‘मैं हूँ और रहूंगी’.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
दरअसल, मर्दानी में सिर्फ चोर-पुलिस का खेल ही नहीं है बल्कि बैकग्राउंड में गर्ल-चाइल्ड ट्रैफिकिंग को भी बैकबोन की तरह स्थिर रखा गया है. जिसके इर्द-गिर्द अपने पति और भतीजी के साथ रहने वाली क्राइम ब्रांच की सीनियर इंस्पेक्टर शिवानी रॉय(रानी मुखर्जी) अपनी लड़ाई लड़ती है. वह निडर है, गालियां बकती है यहां तक कि उसमें मुम्बईया फिल्मी हीरोज के सभी अतिरिक्त गुण भी हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjR9lPBz27uYdPqQQHJEQTtAuys23bfqeibtedTdTG7a-8fp5cW7h3wPb7_6IoUahuJaYw_0MG9z6DtUbAxfSrgpnRvzG4jsWsG1XJuPLpYCrjqfryVKujqiqJTMeGTwfqeGi19Os9jjhA/s1600/new-film-3-4_011314013538.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjR9lPBz27uYdPqQQHJEQTtAuys23bfqeibtedTdTG7a-8fp5cW7h3wPb7_6IoUahuJaYw_0MG9z6DtUbAxfSrgpnRvzG4jsWsG1XJuPLpYCrjqfryVKujqiqJTMeGTwfqeGi19Os9jjhA/s1600/new-film-3-4_011314013538.jpg" height="144" width="320" /></a>फिल्म में रानी मुखर्जी ने एक इंस्पेक्टर का किरदार पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाया है. उनके अभिनय में कहीं भी हड़बड़ी नहीं दिखाई देती. एक्शन सीन में जरूर वे थोड़ी कमतर दिखती हैं लेकिन उसका कारण भी पुरुष मानसिकता से गढ़ी गयी यह मानसिक दुनिया है. जहां महिलाएं महज एक सपोर्टिंग एक्टर हैं. क्योंकि समाज में मर्दों की तरह देह रखना सिर्फ पुरुषों का अधिकार है. जिसके दम पर वह हमेशा स्त्रियों को कमसिन और खुबसूरत की परिभाषा में बांधे रखते हैं. इसके अलावा फिल्म का बाकी हिस्सा सिर्फ कहानी को कहने के लिए मोड़ भर हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
विलेन के रूप में ताहिर राज भसीन ने रानी को जबरदस्त टक्कर दी है. फिल्म में वे खून-खराबा करते या चीखते हुए नजर नहीं आते, बावजूद इसके वे अपने अभिनय से खौफ कायम करने में कामयाब रहे. शायद निर्देशक ने फिल्म के पिछले दरवाजे से यह स्पष्ट किया है कि असल में सामाजिक परिवेश के विलेनों में आज बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है. वह मासूम और सफ़ेदपोश दिखता है. वह अच्छे कपड़े पहनता है और माडर्न दिखता है. पर वह इरादों में बेहद खुंखार है. इसे भी यह फिल्म बेपर्दा करती है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<h3 style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;">क्वीन से ज्यादा मर्दानी! <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
</span></h3>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पिछली सदी के शुरूआती दशकों में रूस के समाजवादी क्रांति के बाद से नारियों को असल अधिकार मिलने शुरू हुए. इंगलेंड जैसे देश ने अपने यहाँ की स्त्रियों को वोटिंग का अधिकार 1925 में दिया वहीं फ्रांस में यह अधिकार 1944 में दिया गया. स्विट्जरलेंड जैसे देश में यह अधिकार 1971 में मिला. अपने देश में आज़ादी के बाद संविधान के लागू होते ही महिलाओं को समान अधिकार दिए गये पर हकीकत जरा कागजी है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhP-o0fFUUlWQDOt5MMlrREYzPjd1iCK27iJiK6YFGat1GtCw1z4eCyfX6xVfqk6DfLuHzHUXKS9EyEfK4wDs8kw0CaarnV1P3Te4tg0-DvfLkh3jXidB5ynrwf1RGWg0A2bdGMjCd-tcU/s1600/1queenpic_2014_3_7_102925.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhP-o0fFUUlWQDOt5MMlrREYzPjd1iCK27iJiK6YFGat1GtCw1z4eCyfX6xVfqk6DfLuHzHUXKS9EyEfK4wDs8kw0CaarnV1P3Te4tg0-DvfLkh3jXidB5ynrwf1RGWg0A2bdGMjCd-tcU/s1600/1queenpic_2014_3_7_102925.jpg" height="171" width="200" /></a>शायद! सामाजिक परतंत्रता की कई ग्रंथियां होती हैं और स्वतंत्रता व स्वाधीनता के लिए उन सभी को खोलना पड़ता है. कौन सी ग्रंथि पहले खुलती है यह परिवेश पर निर्भर करता है. भारत की स्थितियां इस मामले में बेहद जटिल हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पिछले दिनों आयी फिल्म ‘क्वीन’ नारी वर्ग की शादी से जुड़ी ग्रंथियों को आजाद करती है. जिसमें नायिका अपने मंगेतर के शादी से महज दो दिनों पहले रिश्ता तोड़ देने के बावजूद हनीमून पर विदेश जाने के लिए निकल जाती है लेकिन उसके बाद ‘आजादी’ से रू-ब-रू हुई नायिका अपने मंगेतर के वापस लौटने के बाद भी वापिस नहीं लौटती. जैसे ठीक ‘हाइवे’ की वीरा करती है. अपने सेफजोन को एक झटके में तोड़ फेंकती है और अपने पारिवारिक ग्रंथी से आजादी का रास्ता लेती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तभी तो कई बार सिर्फ सफर में ही मजा आता है. जहां से हम चले थे वहां वापस नहीं जाना चाहते और न ही किसी मंजिल तक, ऐसा लगता है कि सफर कभी खत्म ही न हो. आज स्त्रियाँ हाइवे की वीरा की तरह उसी सफ़र पर है. अंतर बस इतना है कि वह अपने सफ़र पर ‘क्वीन’ से ज्यादा ‘मर्दानी’ बनकर रहना चाहती हैं.<br />
<br />
<b>-अमृत सागर</b><br />
<br />
<i><span style="color: blue;">(यह समीक्षात्मक लेख <a href="https://www.facebook.com/roobaruduniya?fref=ts" target="_blank">रूबरू दुनिया</a> में प्रकाशित हो चुका है!)</span></i></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-61002032102282404882014-07-27T03:57:00.000-07:002014-07-27T04:31:22.973-07:00गुरुदत्त: ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;"><b>गुरुदत्त:</b></span> <span style="color: #0b5394;"><b>वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394;"><b><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYlnzyjDQ71f_HBjaBGm5cIYa72coHG83UqN8JKfj3L224aBT6sx-5qQHmGW9E3rdoFdI4h8fTiRKPOcqpHBnVcZQ3Ey8AK-T78PGvoq0sUigsmUK_UnI7ZSSTHcfou7fkOXb_GAiHkiM/s1600/6923ead7-1081-4133-966f-989d06cc4343Wallpaper1.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYlnzyjDQ71f_HBjaBGm5cIYa72coHG83UqN8JKfj3L224aBT6sx-5qQHmGW9E3rdoFdI4h8fTiRKPOcqpHBnVcZQ3Ey8AK-T78PGvoq0sUigsmUK_UnI7ZSSTHcfou7fkOXb_GAiHkiM/s1600/6923ead7-1081-4133-966f-989d06cc4343Wallpaper1.JPG" height="240" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गुरुदत्त: अतृप्त कलाकार </td></tr>
</tbody></table>
</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;">(हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता एवं निर्देशक)</span><b style="color: #0b5394;"> </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><b>जन्म: 9 जुलाई, 1925 बंगलौर, निधन: 10 अक्तूबर, 1964 मुंबई </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394;"><b>1957 में बनी फ़िल्म प्यासा का यह अकेला गीत जो गुरुदत्त के ऊपर ही फिल्माया गया था उन्हें हमेशा-हमेशा के लिये अमर कर गया:</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><b>ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है, वफा कुछ नहीं,दोस्ती कुछ नहीं है;</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><b>जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><b>जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया;</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><b>तुम्हारी है तुम ही सँभालो ये दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? </b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394;"><b>‘गुरुदत्त ने अपने 39 वर्ष के अल्प जीवन में छह फिल्मों की कहानियां लिखीं, तेरह में अभिनय किया, आठ फिल्मों का निर्देशन किया और सात फिल्मों के निर्माता रहे.’</b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394;"><b><br /></b></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYlszo6x8wECTc8eVIQFjWg5wE8TYb6A3Q746hVc-ptoiYUVZ9cC8man-uoICOVhrmXzd61ORDR6JuCJoojuhqGOThqoNH2AUcdUSJfr4SZZJFBAT_C4OZlGQEmH-w0Hoxi1jRwzUHYoA/s1600/Guru-Dutt-in-Pyaasa.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYlszo6x8wECTc8eVIQFjWg5wE8TYb6A3Q746hVc-ptoiYUVZ9cC8man-uoICOVhrmXzd61ORDR6JuCJoojuhqGOThqoNH2AUcdUSJfr4SZZJFBAT_C4OZlGQEmH-w0Hoxi1jRwzUHYoA/s1600/Guru-Dutt-in-Pyaasa.jpg" height="145" width="200" /></a></div>
<h3 style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;"><b><i>ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है... </i></b></span></h3>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
‘‘अक्टूबर का महीना और मुंबई का सुहाना मौसम जिसमें देव आनंद और गीता दत्त के साथ गुरुदत्त ने; न जाने कितनी रातें मरीन ड्राइव और वर्ली के समुद्र तट पर भटकते हुए गुजारी थीं लेकिन ये रात उन रातों से थोड़ी अलग थी. उस रात पैडर रोड स्थित किराए के एक फ्लैट में गुरुदत्त बिलकुल अकेले थे. जिंदगी से आजिज आ चुका एक अकेला, अवसादग्रस्त, अतृप्त कलाकार. उनके बेहद करीबी भी नहीं जानते थे कि ये रात गुरुदत्त के जीवन की आखिरी रात होगी. आधी रात के करीब उन्होंने शराब के नशे में ढेर सारी नींद की गोलियाँ निगल लीं. रात बीती, सुबह हुई लेकिन सदी के एक महान कलाकार की आत्मा का सूरज अस्त हो चुका था.’’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारतीय सिनेमा में <span style="color: #e06666;">गुरुदत्त </span>को याद करने से पहले हमें गुरुदत्त को जानना होगा. </div>
<div style="text-align: justify;">
गुरुदत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है; अवचेतन मन बहुत आश्चर्यजनक है. वह कभी आपको खारे सागर की तलहटी में पेवस्त कर देता है तो कभी ज़ेहन को घुप्प अँधेरा समेटे घने जंगल में भटकने को छोड़ देता है. मन नास्टाल्जिया की परतों में गहरा गोता लगा कर कौन सी तस्वीर सामने खींच ले आएगा हम नहीं जानते. क्योंकि कला व्यक्तिपरक होती है, कुछ एकदम साधारण सी लगती है और समझ नहीं आता है कि दुनिया क्यूँ पागल है इसके पीछे. कला हो, फिल्म हों या किताबे, हमें वही पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है. कहीं न कहीं एक कांच का टूटा हुआ टुकड़ा; टूटा ही सही जिसमें हम अपना अक्स देख लेते हैं. <span style="color: #e06666;">गुरुदत्त </span>को जानते हुए कुछ ऐसे ही अहसास दिल से दोचार होते हैं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
9 जुलाई, 1925 को मैसूर में एक मामूली हेडमास्टर और एक साधारण गृहिणी की संतान के रूप में <span style="color: #e06666;">वसंत शिवशंकर पादुकोण</span> का जन्म हुआ था. माँ की उम्र तब मुश्किल से 13 साल की रही होगी. शुरू से ही आर्थिक परेशानियाँ और भावनात्मक एकाकीपन उसके हमराही रहे. माता-पिता के तनावपूर्ण संबंध, घरेलू दिक्कतें और सात वर्षीय छोटे भाई की असमय मौत ने उनके मानस पटल को जर्जर और उदास कर दिया था. पहले-पहल जिंदगी कुछ इस शक्ल में उसके सामने आई कि उन्होंने दुनिया की रंगीनियत को बेरहमी से ठुकराया दिया. जैसे लगता हो कि वो खुद अपने ही फिल्म <span style="color: #3d85c6;">‘प्यासा का गीत</span> <span style="color: #e06666;">‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है..’</span> <span style="color: #3d85c6;">गुनगुनाने से ज्यादा निभाने पर अड़े हों.’</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बचपन का वो उदास-गुमसुम बच्चा एक दिन <span style="color: #e06666;">‘प्यासा’</span> के विजय और ‘कागज के फूल’ के असफल निर्देशक <span style="color: #3d85c6;">‘सिन्हा साहब’</span> के रूप में हमारे सामने आता है और हम आश्चर्यचकित से देखते रह जाते हैं. साहित्यिकता और रचनात्मकता के बीज बहुत बचपन से ही उनके भीतर मौजूद थे. बत्ती गुल होने पर गुरुदत्त बचपन में दीये की टिमटिमाती लौ के सामने अपनी उँगलियों से दीवार पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाते थे. उन दिनों यह उनके छोटे भाइयों आत्माराम और देवीदास और बहन ललिता के लिए सबसे मजेदार खेल हुआ करता था. गुरुदत्त एक मेधावी विद्यार्थी थे, लेकिन अभावों के चलते कभी कॉलेज न जा सके. उदयशंकर की नृत्य मंडली में उन्हें बड़ा रस आता था. 1941 में मात्र 16 वर्ष की आयु में गुरुदत्त को उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थिति इंडिया डांस सेंटर की स्कॉलरशिप मिली. पाँच वर्ष के इस वजीफे में प्रति वर्ष 75 रु. मिलने वाले थे, जो उस दौर के हिसाब से बड़ी बात थी लेकिन यह शिक्षा अधूरी रह गई. पूरी दुनिया उस समय गहरी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी. भारत में आजादी की लड़ाई जोरों पर थी और वैश्विक पटल पर द्वितीय विश्व युद्ध की गहमागहमी का ज्वलंत माहौल था. उदयशंकर को मजबूरन अपना स्कूल बंद करना पड़ा और गुरुदत्त घरवालों को ये बताकर कि कलकत्ते में उन्हें नौकरी मिल गई है, 1944 में कलकत्ता चले गये.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन बेचैन चित्त को चैन कहाँ. उन्हें एक टेलीफोन ऑपरेटर नहीं, ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ का निर्देशक होना था. उसी वर्ष प्रभात कंपनी में नौकरी करने वे पूना चले आए और यहीं उनकी मुलाकात देवानंद और रहमान से हुई. गुरुदत्त ने फिल्म ‘हम एक हैं’ से बतौर कोरियोग्राफर अपने फिल्मी सफर की शुरुआत की. फिर देवानंद की फिल्म ‘बाजी’ से निर्देशक की कुर्सी सँभाली. तब उनकी उम्र मात्र 26 वर्ष थी. उसके बाद <span style="color: #e06666;">‘आर-पार’, </span><span style="color: #3d85c6;">‘सीआईडी’,</span><span style="color: #e06666;"> ‘मि. एंड मिसेज 55’</span> जैसी फिल्में गुरुदत्त के फिल्मी सफर के तमाम पड़ाव थे, लेकिन वह महान कृति अब भी समय के गर्भ में छिपी थी, जिसे आने वाले समय में एक संजीदा इन्सान; हिंदी सिनेमा के इतिहासपथ पर मील के पत्थरों की तरह गाड़ देने वाला था.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
19 फरवरी, 1957 को <span style="color: #3d85c6;">‘प्यासा’</span> रिलीज हुई. यकीन करना मुश्किल था कि ‘आर-पार’ और ‘मि. एंड मिसेज 55’ के टपोरी नायक के भीतर ऐसा बेचैन कलाकार छिपा बैठा है. यह फिल्म आज भी बेचैन करती है और हरपल मरते हुए समय से जिंदा संवाद करती है. ‘प्यासा’ के बिंबों में जैसे गुरुदत्त उस दौर और उसमें इंसानी जिंदगी के तकलीफदेह यथार्थ को रच रहे थे, वैसा उसके बाद फिर बमुश्किल ही संभव हो पाया. ‘प्यासा’ के दो वर्ष बाद <span style="color: #e06666;">‘कागज के फूल’</span> आई जो बहुत हद तक गुरुदत्त की असल जिंदगी थी. ‘कागज के फूल’ एक असफल फिल्म साबित हुई. दर्शकों ने इसे सिरे से नकार दिया और गुरुदत्त फिर कभी निर्देशक की उस कुर्सी पर नहीं बैठे, जिस पर बैठे-बैठे फिल्म ‘कागज के फूल’ के नायक सुरेश सिन्हा की मौत हो जाती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा को टाइम मैगज़ीन ने विश्व की 100 सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में स्थान दिया. 2002 में साइट और साउंड के क्रिटिक्स और डायरेक्टर्स के पोल में गुरुदत्त की दो फ़िल्मों ‘प्यासा’ और ‘कागज़ के फूल’ को सर्वकालिक<span style="color: #3d85c6;"> 160 महानतम </span>फिल्मों में चुना गया. ‘कागज के फूल’ एक महान फिल्म थी, कुछ मायनों में ‘प्यासा’ से भी आगे की कृति. गुरुदत्त का निर्देशन, <span style="color: #e06666;">अबरार अलवी के संवाद, वी.के. मूर्ति की सिनेमेटोग्राफी और एस. डी. बर्मन का संगीत.</span> दिग्गजों का ऐसा संयोजन गुरुदत्त के ही बूते की बात थी. इस फिल्म की असफलता बहुत चौंकाती नहीं है. हिंदुस्तान जैसे देश में शायद यही मुमकिन था. ‘प्यासा’ को भारत से ज्यादा सफलता विदेशों में मिली. फ्राँस की जनता ने जिस पागलपन के साथ ‘प्यासा’ का स्वागत किया, वह खुद गुरुदत्त के लिए भी उम्मीद से परे था. गुरुदत्त की सिनेमाई समझ और उनके भीतर का कलाकार बेशक महान थे, लेकिन हमारे देश में एक कम उम्र युवक की दुखद मौत उसकी प्रसिद्धि का कारण ज्यादा बनी, न कि उसकी अपराजेय प्रतिभा.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;">“गुरुदत्त के लिए जीवन बहुत आसान नहीं रहा. उनके भीतर एक अतृप्त कलाकार की छटपटाहट थी तो बाहर अवसादपूर्ण दांपत्य और प्रेम की गहन पीड़ा और इर्दगिर्द तोड़ देने वाला अकेलापन. गुरुदत्त का अंतिम समय बेहद कठिन त्रिकोण और संवादहीनता का दलदल साबित हुआ. एक तरफ वहीदा रहमान की दोस्ती और दूसरी तरफ अर्धांगिनी गीता जी से दूरी ने उन्हें लगातार खुद में ही समाते जाने को मजबूर कर दिया. सारे मुम्बईया तिलिस्म के बावजूद वे अपने बच्चों से बेहद प्यार करते थे और अंतिम रात से पहले उन्होंने गीता दत्त जी से कई बार बच्चों को अपने पास भेजने की गुजारिश की थी. अकेलेपन के ऐसे ही क्षणों में उन्होंने अपना जीवन खत्म कर लिया, संसार छूट गया और यहाँ के सारे गम भी. लेकिन उन्हें जानने वाले ये कभी समझ ही न सके कि अकेलेपन और अवसाद का वह कैसा सघनतम क्षण रहा होगा जब गुरुदत जैसे संवेदनशील कलाकार को दुनिया से मुंह मोड़ लेना ही एक मात्र रास्ता सुझा.”</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक व्यावहारिक और चालबाज दुनिया उन्हें कभी नहीं समझ सकी. ‘कागज के फूल’ की असफलता को गुरुदत्त स्वीकार नहीं कर सके. उसके बाद भी उन्होंने दो फिल्में बनाईं, लेकिन निर्देशन का बीड़ा कभी नहीं उठाया. ‘कागज के फूल’ दर्शकों की संवेदना के दायरे में घुसी, लेकिन पहले नहीं, बल्कि गुरुदत्त की मौत के बाद. जीते जी जिसे कोई पहचान नहीं पाया और उनकी मौत ने उन्हें नायक बना दिया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #3d85c6;">‘प्यासा’ का विजय यूँ ही नहीं इस दुनिया को ठुकराता है उसकी संवेदना इस दुनिया की समझ से परे है. उसे कोई समझता है तो सिर्फ गुलाबो (प्यासा की वेश्या) और शांति (कागज के फूल की अनाथ लड़की).</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaKfzgoArqpgRY5WAcxz2bYUlIhudTMZpBOWM1pAIyFP5CgSXJMC-TFrlM7BEottDc6A5splBgyexb0so4W4HjPAsXdTub6mqpClzzlzOyyX4na_cSNvVgh-sC8Lq-VU-U4M623crHTwU/s1600/4657.truelife-murthy2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaKfzgoArqpgRY5WAcxz2bYUlIhudTMZpBOWM1pAIyFP5CgSXJMC-TFrlM7BEottDc6A5splBgyexb0so4W4HjPAsXdTub6mqpClzzlzOyyX4na_cSNvVgh-sC8Lq-VU-U4M623crHTwU/s1600/4657.truelife-murthy2.jpg" height="213" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गुरुदत्त: निर्देशक-निर्माता </td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<h3 style="text-align: justify;">
<i style="color: #990000;">जिन्दगी का सफ़र...</i></h3>
<div style="text-align: justify;">
<u></u><br />
<div style="display: inline !important;">
<u><i style="color: #990000;"><br /></i></u></div>
<u>
</u></div>
<div style="text-align: justify;">
गुरुदत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को बंगलौर में शिवशंकर राव पादुकोणे व वसन्ती पादुकोणे के यहाँ हुआ था. उनके माता पिता कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण थे. उनके पिता शुरुआत के दिनों में शिक्षक थे जो बाद में एक बैंक में काम करने लगे. माँ एक साधारण गृहिणीं थी जो बाद में किसी स्कूल में अध्यापिका हो गयीं. वसन्ती घर पर प्राइवेट ट्यूशन के अलावा बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं. गुरुदत्त ने अपने बचपन के शुरुआती दिन कलकत्ता में गुजारे. उन पर बंगाली संस्कृति की इतनी गहरी छाप पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम <span style="color: #e06666;">वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे </span>से बदलकर गुरुदत्त रख लिया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गुरुदत्त की दादी नित्य शाम को दिया जलाकर आरती करतीं और गुरुदत्त दिये की रौशनी में दीवार पर अपनी उँगलियों की विभिन्न मुद्राओं से तरह तरह के चित्र बनाते रहते. यहीं से उसके मन में कला के प्रति आत्मीयता जागृत हुई. कला परवान चढ़ी और उसे सारस्वत ब्राह्मणों के एक सामाजिक कार्यक्रम में पाँच रुपये का नकद पारितोषक प्राप्त हुआ.जब गुरुदत्त 16 वर्ष के थे उन्होंने 1941 में पूरे पाँच साल के लिये 75 रुपये वार्षिक छात्रवृत्ति पर अल्मोड़ा जाकर <span style="color: #e06666;">नृत्य, नाटक व संगीत </span>की तालीम लेनी शुरू की. 1944 में जब द्वितीय <span style="color: #e06666;">विश्वयुद्ध</span> के कारण उदय शंकर इण्डिया कल्चर सेण्टर बन्द हो गया गुरुदत्त वापस अपने घर लौट आये. आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे स्कूल जाकर अध्ययन तो न कर सके परन्तु <span style="color: #e06666;">पं. रविशंकर</span> के अग्रज उदयशंकर की संगत में रहकर कला व संगीत के कई गुण अवश्य सीख लिये. यही गुण आगे चलकर कलात्मक फ़िल्मों के निर्माण में उनके लिये सहायक सिद्ध हुए.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गुरुदत्त ने पहले कुछ समय <span style="color: #3d85c6;">कलकत्ता</span> जाकर लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की लेकिन जल्द ही वे वहाँ से इस्तीफा देकर 1944 में अपने माता पिता के पास मुंबई लौट आये. उनके चाचा ने उन्हें प्रभात फिल्म कम्पनी पूना तीन साल के अनुबन्ध के तहत फिल्म में काम करने भेज दिया. वहीं सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता <span style="color: #e06666;">वी० शान्ताराम</span> ने कला मन्दिर के नाम से अपना स्टूडियो खोल रखा था. यहीं रहते हुए गुरुदत्त की मुलाकात फिल्म अभिनेता <span style="color: #e06666;">रहमान और देव आनन्द </span>से हुई जो आगे जाकर उनके बहुत अच्छे मित्र बने.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
देखा जाये तो उनके संघर्ष का यही वह समय था जब उन्होंने लगभग आत्मकथात्मक शैली में प्यासा फिल्म की पटकथा लिखी. मूल रूप से यह पटकथा <span style="color: #e06666;">‘कश्मकश’</span> के नाम से लिखी गयी थी जिसका हिन्दी में अर्थ <span style="color: #e06666;">‘संघर्ष’</span> होता है. बाद में इसी पटकथा को उन्होंने ‘प्यासा’ के नाम में बदल दिया. यह पटकथा उन्होंने माटुंगा में अपने घर पर रहते हुए लिखी थी.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उन्हें पूना में सबसे पहले 1944 में <span style="color: #e06666;">‘चाँद’</span> नामक फिल्म में श्रीकृष्ण की एक छोटी सी भूमिका मिली. 1945 में अभिनय के साथ ही फिल्म निर्देशक <span style="color: #e06666;">विश्राम बेडेकर</span> के सहायक का काम भी देखते थे. 1946 में उन्होंने एक अन्य सहायक निर्देशक पी० एल० संतोषी की फिल्म <span style="color: #e06666;">‘हम एक हैं’</span> के लिये नृत्य निर्देशन का काम किया. यह अनुबन्ध 1947 में खत्म हो गया. उसके बाद उनकी माँ ने बाबूराव पै, जो प्रभात फिल्म कम्पनी व स्टूडियो के सी०ई०ओ० थे, के साथ एक स्वतन्त्र सहायक के रूप में फिर से नौकरी दिलवा दी. वह नौकरी भी छूट गयी तो लगभग दस महीने तक गुरुदत्त बेरोजगारी की हालत में माटुंगा बम्बई में अपने परिवार के साथ रहते रहे. इसी दौरान, उन्होंने अंग्रेजी में लिखने की क्षमता विकसित की और <span style="color: #3d85c6;">इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया </span>नामक एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिये लघु कथाएँ लिखने लगे.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गुरुदत्त को <span style="color: #e06666;">प्रभात फिल्म कम्पनी </span>ने बतौर एक कोरियोग्राफर के रूप में काम पर रखा था लेकिन उन पर जल्द ही एक अभिनेता के रूप में काम करने का दवाव डाला गया. केवल यही नहीं, एक सहायक निर्देशक के रूप में भी उनसे काम लिया गया. प्रभात में काम करते हुए उन्होंने देव आनन्द और रहमान से उनके सम्बन्ध बने. उन दोनों की दोस्ती ने गुरुदत्त को फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाने में काफी मदद की. प्रभात के 1947 में विफल हो जाने के बाद गुरुदत्त बम्बई आ गये. वहाँ उन्होंने अपने समय के दो अग्रणी निर्देशकों अमिय चक्रवर्ती की फिल्म <span style="color: #3d85c6;">‘गर्ल्स स्कूल’</span> में और ज्ञान मुखर्जी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म <span style="color: #3d85c6;">‘संग्राम’ </span>में काम किया. बम्बई में ही उन्हें देव आनन्द की पहली फिल्म के लिये निर्देशक के रूप में काम करने की पेशकश की गयी. देव आनन्द ने उन्हें अपनी नई कम्पनी नवकेतन में एक निर्देशक के रूप में अवसर दिया था किन्तु दुर्भाग्य से यह फिल्म फ्लॉप हो गयी. इस प्रकार गुरुदत्त द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी नवकेतन के बैनर तले बनी <span style="color: #e06666;">‘बाज़ी’</span> जो 1951 में प्रदर्शित हुई.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyz_ZmhfOT2ZzGnzdCXTN04Fzta_AfvNdU0hlDJeivR4fyzKWahFtyfuPPgKDAWe0cr4HQE_da1mD3VTmHDr6kBHFrf8CEyAf2w0izYbGruTvxi3h54KqJAaHBUKWm2d12vmCO0TlDygE/s1600/23FR_GEETA_2_871373g.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyz_ZmhfOT2ZzGnzdCXTN04Fzta_AfvNdU0hlDJeivR4fyzKWahFtyfuPPgKDAWe0cr4HQE_da1mD3VTmHDr6kBHFrf8CEyAf2w0izYbGruTvxi3h54KqJAaHBUKWm2d12vmCO0TlDygE/s1600/23FR_GEETA_2_871373g.jpg" height="169" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">गुरुदत्त और परिवार </td></tr>
</tbody></table>
<h3 style="text-align: justify;">
<i style="color: #990000;"> मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा...</i></h3>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कोई बड़ा सर्जक जब युवावस्था में ही आत्महत्या कर लेता है तो उसके साथ कई रूमानी कहानियाँ जुड़ जाती हैं और उसके प्रशंसकों का एक बड़ा संप्रदाय सा बन जाता है. लेकिन यह रूमानियत की आस्था हवाई नहीं होती. चालीस बरस पहले सिर्फ <span style="color: #3d85c6;">39 बरस</span> की उम्र में<span style="color: #e06666;"> ख़ुदकुशी</span> कर लेने वाले गुरुदत्त की वैसी मौत अब सिर्फ़ एक <span style="color: #e06666;">दर्दनाक ब्यौरा </span>बनकर रह गई है, लेकिन उनकी 'प्यासा', 'काग़ज़ के फूल' और 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' सरीखी फ़िल्में भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर हैं. बेशक़ ये तीनों बड़ी फिल्में हैं लेकिन गुरुदत्त की प्रारंभिक फिल्मों को भुला देना उनके योगदान की जमीन को भुला देने के बराबर होगा.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक साफ़-सुथरा, लोकप्रिय और मनोरंजक सिनेमा 1950 के दशक में उभर रहा था, उसमें गुरुदत्त का केन्द्रीय योगदान रहा है. यूँ तो बंगलौर में जन्मे गुरुदत्त की मातृभाषा हिन्दी या उर्दू नहीं थी लेकिन उनकी शिक्षा देश की तत्कालीन सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता में हुई, वहीं उनमें कलाओं में रूचि जागी. नृत्य सीखने की इच्छा ने उन्हें नृत्य-विश्वगुरु <span style="color: #3d85c6;">उदय शंकर</span> से मिलवाया जो उस वक्त भारत की पहली नृत्य-फ़िल्म <span style="color: #e06666;">'कल्पना'</span> की योजना बना रहे थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस संयोग से गुरुदत्त का रुझान सिनेमा की ओर गया और मुंबई में बन रही 1945 की फ़िल्म <span style="color: #e06666;">'बरखारानी'</span> में उन्होंने नृत्य निर्देशन किया साथ ही नायिका के छोटे भाई की एक मामूली भूमिका भी की. देव आनंद की पहली फिल्म 'हम एक हैं' (1946) में भी वे नृत्य-निर्देशक थे. <span style="color: #3d85c6;">अमित चक्रवर्ती </span>की फिल्म 'गर्ल्स स्कूल' (1949) और <span style="color: #e06666;">ज्ञान मुखर्जी </span>की अपराध फिल्म 'संग्राम' में वे सहायक निर्देशक रहे. मित्र देव आनंद ने अपनी संस्था नवकेतन की दूसरी फ़िल्म 'बाज़ी' (1951) का सम्पूर्ण निर्देशन 26 वर्षीय गुरुदत्त को सौंप दिया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस फ़िल्म की हिरोइन थी सुपरिचित पार्श्वगायिका <span style="color: #e06666;">गीता रॉय,</span> जो बाद में गुरुदत्त की <span style="color: #3d85c6;">‘जिन्दगी’</span> बन गयीं. शादी के बाद वह गीता दत्त हो गईं. उसकी कामयाबी से गुरुदत्त, देव आनंद, संगीतकार <span style="color: #e06666;">सचिन देव बर्मन </span>और गीतकार साहिर लुधियानवी को स्थाई अखिल भारतीय ख्याति मिली. अगली फ़िल्म 'जाल' में इस टीम के साथ गुरुदत्त ने जॉनी वॉकर को भी जोड़ लिया जो आगे चल कर एक साफ-सुथरे हास्य अभिनेता के रूप में स्वीकृत हुए. 1953 की अपने नायकत्व वाली फ़िल्म 'बाज़' इतनी सफल नहीं हुई लेकिन उसके बाद 'आर-पार', 'सीआईडी' और <span style="color: #e06666;">'मिस्टर एंड मिसेज 55'</span> ज़बरदस्त हिट रही. गुरुदत्त को अब बच्चा-बच्चा जानता था, फ़िल्म-उद्योग में निर्माता-निर्देशक-अभिनेता के रूप में वे स्थापित हो चुके थे. ये वो दशक था जब मोतीलाल, अशोर कुमार, बलराज साहनी, दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद सरीखी प्रतिभाएं अपने उत्कर्ष पर थीं.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1945-55 के दस वर्ष गुरुदत्त की उस बहुमुखी तैयारी के वर्ष थे जिसका अंतिम लक्ष्य कुछ बड़ी फिल्में बनाना था. जब दिलीप कुमार वादा करके भी सेट पर नहीं आए तो गुरुदत्त ने स्वयं 'प्यासा' के भावुक, आदर्शवादी, पूंजी-विरोधी कवि की भूमिका संभाल ली. <span style="color: #e06666;">'प्यासा'</span> का नायक हर तरह के अन्याय, पाखंड और शोषण के विरुद्ध है. उसे किन्हीं जीवन-मूल्यों की प्यास है. एक अवसरवादी, बुर्जुआ प्रेमिका को छोड़कर वह एक वेश्या को चाहने लगता है. अपने धनपिशाच भाइयों से उसे नफ़रत होती है जो उसकी कथित मौत का फ़ायदा उठाना चाहते हैं. निर्देशक गुरुदत्त की दुलर्भ विशेषता यह है कि उनकी फिल्मों में किसी भी पात्र का अभिनय दोयम दर्जे का नहीं होता. 'प्यासा' में गुरुदत्त, <span style="color: #e06666;">वहीदा रहमान, माला सिन्हा और जॉनी वॉकर </span>की बेजोड़ अदाकारी है. वहीदा रहमान तो गुरुदत्त की ही खोज थीं लेकिन फिल्म का जो संदेश था उसे सिर्फ साहिर लुधियानवी के गीतों ने सचिन देव बर्मन की धुनों से संप्रेषित किया. <span style="color: #e06666;">'प्यासा'</span> के गीत अद्वितीय हो गये. </div>
<div style="text-align: justify;">
उस वक्त <span style="color: #3d85c6;">साहिर लुधियानवी </span>ने सिर्फ़ फ़िल्म के नायक को ही नहीं, उस युग के करोड़ों भारतीयों की भावनाओं को व्यक्त कर कर दिया था जो आज भी बदस्तूर जारी है!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'प्यासा' की आशातीत सफलता ने शायद गुरुदत्त को दुस्साहसी बना दिया और उनकी अगली और दक्षिण एशिया की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म 'काग़ज के फूल' में वे आत्मकथा में जाते हुए एक ऐसे फिल्म-निर्देशन की कहानी दिखाने का साहस कर बैठते हैं जो प्रेम, परिवार और पेशे तीनों मोर्चों पर असफल रहती है. लेकिन <span style="color: #e06666;">प्रेम, अकेलेपन व उदासी से लरबरेज </span>और उसमें डूब सब कुछ मिटा देने वाले एक फिल्म निर्देशक की एक <span style="color: #3d85c6;">आत्मकथात्मक</span> कला ने इसे इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया क्योंकि जिन्दगी के इस पक्ष को दिखाने वाले गुरुदत्त पहले निर्देशक बन गये थे.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkjn0T4-Bv06p5-c3ZAVqqkBWYkqo8l_lHuUEDPCnYwYpzg1gl4bPcuG7GdpYFcxWG9uBD0Aujarye5mzWVjh_0QOn0ibQhH_svmHSZhtq8eJJ1aADcW8-ySbbBlvoepED-EBbS23wdTk/s1600/Guru-Dutt-.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkjn0T4-Bv06p5-c3ZAVqqkBWYkqo8l_lHuUEDPCnYwYpzg1gl4bPcuG7GdpYFcxWG9uBD0Aujarye5mzWVjh_0QOn0ibQhH_svmHSZhtq8eJJ1aADcW8-ySbbBlvoepED-EBbS23wdTk/s1600/Guru-Dutt-.jpg" height="150" width="200" /></a>यह विषय अपने वक्त से बहुत आगे का है- वह फ्रांस की <span style="color: #3d85c6;">'नूवेल बाग'</span> और <span style="color: #3d85c6;">'आत्यँय'</span> फिल्मों के नजदीक़ था. यह इतनी निजी और फ़िल्म की दुनिया को उघाड़ने वाली फिल्म थी कि दर्शकों को बेहद असुविधाजनक लगी. अभिनय अच्छा था, लेकिन साहिर के साथ मतभेद हो जाने के बाद एसडी बर्मन, कैफी आज़मी के साथ <span style="color: #e06666;">'प्यासा'</span> जैसा जादू कर न सके. <span style="color: #e06666;">'काग़ज के फूल'</span> में गुरुदत्त व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों मोर्चों पर मायूस हुए और उन्होंने यह लिखा भी है कि ‘जनता की रुचि पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता’, लेकिन आज वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सबसे कलात्मक फ़िल्म मानी जाती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #3d85c6;">'साहब, बीवी और गुलाम'</span> के निर्देशन का श्रेय अबरार अलवी को दिया जाता है, ठीक उसी तरह जैसे कि चौदहवीं का चाँद का एम सादिक़ को, लेकिन दोनों फिल्मों में अलवी और सादिक़ के असंदिग्ध योगदान के बावजूद हर फ्रेम पर गुरुदत्त की मुहर लगी साफ दिखती है. और सच तो यह है कि अभिनय, विषय, संगीत, फोटोग्राफी और सांस्कृतिक रचाव-बसाव के मामलों में 'साहब, बीबी और गुलाम' गुरुदत्त की सर्वगुणसम्पन्न फिल्म लगती है. <span style="color: #3d85c6;">मीना कुमारी</span> का अभिनय देखकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, रहमान की प्रतिभा को जितना गुरुदत्त पहचानते थे उतना कोई और नहीं, <span style="color: #3d85c6;">'चौदहवीं का चाँद'</span> में खुदकुशी से पहले रहमान की जो अदाकारी दिखती है वह गुरुदत्त की पारखी दरियादिली ही थी कि पूरी फिल्म में उन्होंने रहमान के किरदार को खुद पर हावी होने दिया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
'चौदहवीं का चाँद' बेशक़ एक लोकप्रिय मुस्लिम सोशल फ़िल्म है लेकिन उस हिस्से में भी वह बड़ी फिल्म है. 'मेरे महबूब' उसके आसपास नहीं फटकती, <span style="color: #e06666;">'साहब, बीबी और गुलाम' </span>अपनी पूर्णता में कालजयी है और बताती है कि एक जटिल, विस्तीर्ण साहित्यिक कृति पर फ़िल्म कैसे बनाई जाती है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अफ़सोस यह है कि निर्देशक गुरुदत्त ने अभिनेता गुरुदत्त पर ग्रहण सा लगा दिया. उनमें ग्लैमर नहीं था और उन्हें अपनी फिल्मों से बाहर हमेशा बलराज साहनी और भारत भूषण जैसी भली भूमिकाएँ दी जाती रहीं लेकिन उनके किसी भी किरदार को दोयम दर्जे की अदायगी नहीं कहा जा सकता. दूसरों के लिए अभिनीत उनकी अंतिम चार फिल्में <span style="color: #e06666;">बहूरानी (1963), भरोसा (1963) सांझ और सबेरा(1964) तथा सुहागन (1964)</span> नाकामयाब नहीं रहीं. वे <span style="color: #3d85c6;">अलीबाबा और चालीस चोर की कहानी</span> पर एक उत्तर-आधुनिक निर्वाह वाली फिल्म बनाना चाहते थे. लेकिन उनकी आत्मा को अनजान हादसों और मायूसियों ने घेर लिया था. उनके असमय और संदिग्द्ध मौत ने <span style="color: #cc0000;">गुरुदत्त</span> को निजी मुक्ति तो दे दी लेकिन भारतीय या शायद विश्व-सिनेमा को कई कृतियों से हमेशा के लिए वंचित कर दिया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRS5Idr_WdEN2a5hDQoLDmVyXuNkYwXVmfxjYiYTjDLCXLBWM-i43Q2-DpQxGmrtxTItJCxWX2jpuhlkwNfFMm6WIrvKnJQQF8CJsHYALF8m5P4yRBTU5Vzals-he_o9NlQUNx_u6cWfM/s1600/Guru-Dutt-.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><br /></a></div>
<h3 style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;"><b><i><br /></i></b></span><span style="color: #990000;"><b><i>जो दुनिया को दिया ..<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvP9nJVzjk790XiQGrwmhJw9Nyc2wYsskQdMoCn5U2hlX6GmevFjQvgD-EG6GrkARU7jD2EYY53Ph5wWF2jPoQ1_QKmXQP1vp00FHuHY4XlTbHB92kZYlXz0iq-iT1N-qD7cNa8ppykkI/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvP9nJVzjk790XiQGrwmhJw9Nyc2wYsskQdMoCn5U2hlX6GmevFjQvgD-EG6GrkARU7jD2EYY53Ph5wWF2jPoQ1_QKmXQP1vp00FHuHY4XlTbHB92kZYlXz0iq-iT1N-qD7cNa8ppykkI/s1600/images.jpg" /></a></div>
</i></b></span></h3>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #3d85c6;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #3d85c6;">गुरुदत्त यथार्थवादी कलाकार थे. यथार्थपरक नहीं. जो वैचारिक प्रतिबद्धता गुरुदत्त में</span><span style="color: #e06666;"> थी, वो उस दौर के कई फिल्मकारों में थी लेकिन समय के झंझावतों में कईयों ने अपने चोले बदल दिए पर गुरुदत्त कभी न बदले. जिस व्यवस्था के खिलाफ गुरुदत्त लड़ रहे थे, उसके अपने खतरे थे. गुरुदत ने अपनी फिल्मों में शुरू से आखिर तक सामाजिक सम्बद्धता की छाप छोड़ी. उनकी फ़िल्में सामाजिक रूढियों और मान्यताओं के प्रति बगावती रुख अख्तियार करती हैं, उनकी फ़िल्म दिमाग से नफे-नुकसान का आकलन करते हुए नहीं बल्कि दिल के रस्ते, संवेदनाओं के सागर में कहीं गुम हो जाने में अपनी सपूर्णता ढूढती हैं. बाजारभाव के इस दौर में जिसको सहेजना रोटी-दाल और अपनी सांसो में किसी एक को चुनने के बराबर है.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #3d85c6;">कई सौ वर्षों की गुलामी झेलने वाले तीसरी दुनिया के एक गरीब मुल्क और एक सामंती भाषा में रचे जा रहे सिनेमा की अपनी वस्तुगत सच्चाइयाँ थीं. जबकि गुरुदत्त इस यथार्थ से बहुत आगे थे. विचारों के लिए जीना और वह भी हिन्दी फिल्मों के बाजार में, एक असाध्य पीड़ा को जन्म देता है. जबकि इन सबको स्थापनाएं देने वाला हिन्दी फिल्मों का दर्शक; बिना कोई ख़िताब पाये कलाकार को भुला देने का आदी रहा है. मीडिया की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. मीडिया फिल्मों और फिल्मकारों की ऐसी संगिनी रहा है, जो चाहे-अनचाहे किसी भी फिल्म को, किसी भी अदाकार को लोक और अ-लोक के शिखर-पाताल में जगह दे देती है. शायद इसीलिए ‘कागज के फूल’ के सिन्हा साहब (गुरुदत्त) को उनके स्टूडियो के कर्मचारी भी नहीं पहचान पाए थे.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #3d85c6;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;">गुरुदत्त अपने वक्त से बहुत आगे के कलाकार थे. मुंबईया सिनेमा की जिन सीमाओं के बीच वे अपनी कालजयी कृतियाँ रच रहे थे, वह अपने आप में एक गहरी रचनात्मक तड़प को दर्शाती है. वह तड़प, जो जिंदगी के छूटने के साथ ही छूटी. शायद पूरी तरह छूटी भी नहीं, जो अपने पीछे एक तड़प छोड़ गई. वही तड़प, जो आज भी ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ को देखते हुए हमें अपने भीतर महसूस होती है. एक तड़प, जो सुंदर फूलों की ‘प्यास’ में भटक रही है, लेकिन जिसके हिस्से आती है, सिर्फ ‘कागज के फूल’... जिसमें कोई मादक सुगंध नहीं बल्कि है.. एक बदसूरत महक जो दिलोदिमाग को दर्द के गहरे सागर के मुहाने तक खिंच ले जाती है.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>- अमृत सागर </b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<i><span style="color: blue;">(कभी किसी सेमेस्टर के लिए लिखा गया एक असाइनमेंट)</span></i></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-31976924895312752012014-07-21T02:31:00.000-07:002014-07-21T02:32:48.857-07:00बलराज साहनीः ‘पूरी दुनिया’ का चेहरा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDNuQHx4VVyQYkovCHPg-HQSRUR2U43MVmFtTev1QXNZ__NNiAr8Aiy7C3XiWYgmbrtqPsJ_vjUU0RzGTXZ4kob3Kc3397V9UqqFjVy5BAj2G2hD1WoBh5zWvjV8dKB9AlxJsIHaRhfLQ/s1600/vlcsnap-2223827.png" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDNuQHx4VVyQYkovCHPg-HQSRUR2U43MVmFtTev1QXNZ__NNiAr8Aiy7C3XiWYgmbrtqPsJ_vjUU0RzGTXZ4kob3Kc3397V9UqqFjVy5BAj2G2hD1WoBh5zWvjV8dKB9AlxJsIHaRhfLQ/s1600/vlcsnap-2223827.png" height="240" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बलराज साहनी</td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;">कभी सोवियत संघ के एक मशहूर निर्माता ने कहा था कि </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">‘बलराज साहनी के चेहरे पर एक पूरी दुनिया दिखाई देती है.’ </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;">बलराज साहनी ने उसके कुछ दिनों बाद ही आनन्द बाजार पत्रिका में लिखा कि </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">"यह ‘पूरी दुनिया’ उस रिक्शेवाले की थी और शर्म की बात यह है कि आजादी के </span><span style="color: blue;">25 साल बाद भी वह चेहरा नहीं बदला है." </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
विभाजन की दिवारों में चिन दिए गये दिली हर्फों को महसूस कर चुके <span style="color: #990000;">बलराज साहनी</span> के व्यक्तित्व को समझने के लिए यह लाइनें काफी हैं. लेकिन फिल्म <span style="color: blue;">‘दो बिघा जमीन’</span> का यह रिक्शेवाला जो अपने संजीदा अभिनय से भारतीय दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ चुका था केवल अभिनेता ही नहीं रहा, उन्होने जिन्दगी के कोरस पर कथाकार, शिक्षक, रंगकर्मी, संस्मरण और यात्रा-लेखक की भुमिका भी बखूबी निभाई.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
विभाजन पर आधारित एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म <span style="color: blue;">गर्म हवा</span> की चर्चित आखिरी पंक्ति <span style="color: #990000;">‘इंसान कब तक अकेला जी सकता है’ </span>किसी और की नहीं, बल्कि फिल्म के मुख्य अभिनेता<span style="color: #990000;"> बलराज साहनी</span> की ही रची हुई थी. 1973 की इस प्रसिद्ध फिल्म के साथ ही यह वर्ष ‘<span style="color: blue;">काबुलीवाला’ </span>और <span style="color: blue;">‘धरती के लाल’</span> जैसी प्रसिद्ध फिल्मों के अभिनेता बलराज साहनी की जन्मशती का वर्ष भी है. दुर्भाग्यवश साहनी की मौत फिल्म गर्म हवा की डबिंग खत्म करने के अगले ही दिन हो गई थी. इस कारण वे कभी गर्म हवा देख नहीं सके. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigAAO7VInjooQWPSt3o4oFKvIl5Zh6YccwWFkFmgJQo86BPCANlRPj58nSRWhuTYGIQYLVCNea85cjzcc4ksDaJnrtdrQ8cEd9XlcGkT8X7h7stV9LQkJbLnrPAZ0aFuul193GbQov_sw/s1600/Balraj-Sahni-with-Mohinder-Singh-Randhawa-and-Mohan-Singh.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEigAAO7VInjooQWPSt3o4oFKvIl5Zh6YccwWFkFmgJQo86BPCANlRPj58nSRWhuTYGIQYLVCNea85cjzcc4ksDaJnrtdrQ8cEd9XlcGkT8X7h7stV9LQkJbLnrPAZ0aFuul193GbQov_sw/s1600/Balraj-Sahni-with-Mohinder-Singh-Randhawa-and-Mohan-Singh.jpg" height="191" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
बलराज साहनी ने 1913 में रावलपिंडी(अब पाकिस्तान में) के एक मध्यमवर्गीय व्यवसायिक परिवार में जन्म लिया था. लेकिन उनकी प्रतिभा ने उन्हे इतिहास के पन्नों में मील का पत्थर बना के दर्ज कर दिया. लाहौर से अंग्रेजी में एमए करने के बाद बलराज साहनी रावलपिंडी लौट गये और पिता के व्यापार में उनका हाथ बंटाने लगे. 1930 के अंत मे बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती रावलपिंडी को छोड़कर रवीन्द्र नाथ टैगोर के शांति निकेतन पहुंचें जहां बलराज साहनी अंग्रेजी के शिक्षक नियुक्त हो गये.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1938 में कुछ समय बलराज साहनी ने महात्मा गांधी के साथ भी काम किया. इसके एक वर्ष के पश्चात महात्मा गांधी के सहयोग से बलराज साहनी को बी.बी.सी के हिन्दी उदघोषक के रूप में इग्लैंड में नियुक्ति मिल गयी. लगभग पांच वर्ष के इग्लैंड प्रवास के बाद वह 1943 में भारत लौट और<span style="color: #990000;"> इप्टा</span><span style="color: blue;"> (इंडियन प्रोग्रेसिव थियेटर एसोसियेशन) </span>ज्वाइन कर लिया. इप्टा में वर्ष 1946 में उन्हें सबसे पहले फणी मजमूदार के नाटक ‘इंसाफ’ में अभिनय करने का मौका मिला. इसके साथ ही ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में इप्टा की ही निर्मित फिल्म ‘धरती के लाल’ में भी बलराज साहनी ने बतौर अभिनेता काम किया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इप्टा से जुडे रहने के कारण बलराज साहनी को कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा. उन्हें अपने क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट विचारों के कारण जेल भी जाना पडा. उन दिनों वह फिल्म <span style="color: blue;">‘हलचल’ </span>की शूटिंग में व्यस्त थे और निर्माता के आग्रह पर विशेष व्यवस्था के तहत फिल्म की शूटिंग किया करते थे. शूटिंग खत्म होने के बाद वापस जेल चले जाते थे. वर्ष 1953 मे <span style="color: #990000;">बिमल राय</span> के निर्देशन मे बनी फिल्म दो बीघा जमीन बलराज साहनी के कैरियर में अहम पड़ाव साबित हुई. इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने एक रिक्शावाले के किरदार को जीवंत कर दिया. रिक्शावाले को फिल्मी पर्दे पर साकार करने के लिये बलराज साहनी ने कलकत्ता की सड़को पर 15 दिनों तक खुद रिक्शा चलाया और रिक्शेवालों की जिंदगी को जिया. वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म<span style="color: blue;"> ‘काबुलीवाला’</span> में भी बलराज साहनी ने अपने संजीदा अभिनय से दर्शको को भावविभोर कर दिया. उनका मानना था कि पर्दे पर किसी किरदार को साकार करने के पहले उस किरदार के बारे मे पूरी तरह से जानकारी हासिल की जानी चाहिये. इसीलिये वह बम्बई में एक काबुलीवाले के घर; लगभग एक महीने तक रहे. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFUEDssYCCRROetb44C3sixaKjo1z5UYGqSQu5BwxpoLRmAl0Zz04wx8aDb6PQ6rOCmoORDJZnXXWVT_8rDBWqz_bC4MFS38_8DeQ6r0QEpQhyZvR4zGMsBUbi-GFZ_iVorLDtO3lcTlc/s1600/balraj_sahni_20100823.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFUEDssYCCRROetb44C3sixaKjo1z5UYGqSQu5BwxpoLRmAl0Zz04wx8aDb6PQ6rOCmoORDJZnXXWVT_8rDBWqz_bC4MFS38_8DeQ6r0QEpQhyZvR4zGMsBUbi-GFZ_iVorLDtO3lcTlc/s1600/balraj_sahni_20100823.jpg" height="200" width="190" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
बहुमुखी प्रतिभा के धनी बलराज साहनी अभिनय के साथ-साथ लिखने में भी काफी रूचि रखते थे. वर्ष 1960 में अपने पाकिस्तानी दौरे के बाद उन्होंने <span style="color: #990000;">‘मेरा पाकिस्तानी सफरनामा.’ </span>और वर्ष 1969 में तत्कालीन सोवियत संघ के दौरे के बाद<span style="color: #990000;"> ‘मेरा रूसी सफरनामा’</span> किताब लिखी. बलराज साहनी ने ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ किताब के माध्यम से लोगों को खुद से रूबरू भी कराया. सदाबहार अभिनेता देवानंद निर्मित फिल्म ‘बाजी’ की पटकथा भी बलराज साहनी ने ही लिखी थी. बलराज साहनी के उल्लेखनीय फिल्मों को याद करते हुए कुछ और भी नाम गिनाये जा सकते हैं जैसे हमलोग, गरम कोट, सीमा, वक्त, कठपुतली, लाजवंती, सोने की चिडिया, घर-संसार, सट्टा बाजार, भाभी की चूडि़या, हकीकत, दो रास्ते, एक फूल दो माली, मेरे हमसफर आदि. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म<span style="color: blue;"> ‘लाल बत्ती’</span> का निर्देशन भी बलराज साहनी ने किया था. निर्देशक एम.एस.सथ्यू की वर्ष 1973 मे प्रदर्शित <span style="color: blue;">‘गर्म हवा’</span> बलराज साहनी की फिल्मो में से सबसे अधिक याद की जाने वाली कृतियों में से एक रही है. विभाजन के दौर में भारतीय मुसलमानो के पाकिस्तान पलायन की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में बलराज साहनी केन्द्रीय भूमिका में हैं. इस फिल्म में उन्होंने जूता कारखाना चलाने वाले एक रईस मगर परेशान कारोबाारी की भूमिका अदा की है. जिसे यह फैसला लेना है कि वह हिन्दुस्तान में रहे अथवा नये बने पाकिस्तान की ओर पलायन कर जाये. अगर दो बीघा जमीन को छोड दे तो बलराज साहनी के फिल्मी कैरियर की सबसे बेहतरीन अदाकारी वाली फिल्म गर्म हवा ही रही. जिसने उन्हे सदियों के लिए अमर कर दिया. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSe8RUR2s5G8IIzbuGMbF1LWADGsztrpTk2xtIsrNpTOFrYPx_WoVnOcx_Dbn2to3RnQvloyRPW8LK4LVIoe8DvmNPn8woDO_UWhh9qaqzEKiVHH0ZOaGCT_GbL4OrqtIGX0QWa11HoUw/s1600/01114.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSe8RUR2s5G8IIzbuGMbF1LWADGsztrpTk2xtIsrNpTOFrYPx_WoVnOcx_Dbn2to3RnQvloyRPW8LK4LVIoe8DvmNPn8woDO_UWhh9qaqzEKiVHH0ZOaGCT_GbL4OrqtIGX0QWa11HoUw/s1600/01114.jpg" height="150" width="200" /></a></div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
13 अप्रैल 1973 के दिन अपने संजीदा अभिनय से आंखों को नम कर देने वाले इस कलाकार ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. लेकिन ता-जीन्दगी इस संजीदा कलाकार की सामाजिक सोच पर महत्वाकांक्षा कभी न हावी हो पायी. शायद इसलिए ही उन्होने कभी<span style="color: #990000;"> ‘अभिनय का बाजार’</span> बनने की नहीं सोची. तभी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता के आगे फिल्मी दुनिया की चमक-दमक बौने साबित हुए. और वे अकेले ही <span style="color: blue;">जिम्मेदार राहों के हमराही </span>बने रहे.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>-अमृत सागर</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><span style="color: blue;">(2013 में बनारस फिल्म फेस्टिवल के ब्रोसर के लिए लिखा गया लेख )</span></i></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-12930463538630207972014-07-03T05:32:00.000-07:002014-07-03T05:51:50.200-07:00आज ही के दिन कुलभूषण पंडित उर्फ "राजकुमार" इस दुनिया के फ़ानूसखाने से पिघल गया था... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="br" style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRJLgIldW6TfymNp6x5VDJZ3oRcdk9IqR0zbcisUnQoqVvhX391TO0tuKEeMSmxIvuhLzAGBheu02FhLTtyRQ0b_hID9n49HD0PeoOKW1WcQqQ7T9L2GoU3O9e-lIurG-fPlnxAGiFfXw/s1600/film%2520actor%2520raaj%2520kumar635203-07-2014-01-32-99N.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRJLgIldW6TfymNp6x5VDJZ3oRcdk9IqR0zbcisUnQoqVvhX391TO0tuKEeMSmxIvuhLzAGBheu02FhLTtyRQ0b_hID9n49HD0PeoOKW1WcQqQ7T9L2GoU3O9e-lIurG-fPlnxAGiFfXw/s1600/film%2520actor%2520raaj%2520kumar635203-07-2014-01-32-99N.jpg" height="93" width="200" /></a><span style="color: #e06666;">-<em><strong>चिनॉय सेठ, </strong></em></span><br />
<span style="color: #e06666;"><em><strong>जिनके घर सीसे के बने होते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते..</strong></em></span> <br />
(फिल्म<span style="color: #0b5394;"> 'वक्त'</span><span style="color: black;">)</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><strong><em>-हमारी जुबान भी हमारी गोली की तरह है, </em></strong></span><span style="color: #e06666;"><strong><em>दुश्मन से सीधी बात करती है..</em></strong></span><br />
(फिल्म <span style="color: #0b5394;">'तिरंगा</span>')</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><strong><em>-हम आंखो से सुरमा नहीं चुराते, हम आंखें ही चुरा लेते हैं...</em></strong><span style="color: black;"> </span></span><br />
<span style="color: #e06666;"><span style="color: black;">(फिल्म </span><span style="color: #0b5394;">'तिरंगा'</span><span style="color: black;">)</span></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"></span> </div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><strong><em>-हम तुम्हें मारेंगे और जरूर मारेंगे..</em></strong></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #e06666;"><em><strong> लेकिन वह वक्त भी हमारा होगा, बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी..</strong></em></span> <br />
(फिल्म <span style="color: #0b5394;">'सौदागर'</span>)</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394;">------------------------------------</span></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं जानता हूँ ! इन लाईनों के बाद किसी नाम और तार्रुफ़ की जरुरत नहीं पड़ेगी…</div>
<div style="text-align: justify;">
3 जुलाई 1996, कैलेंडरों में आज के ही दिन रुपहले परदे का एक अजीम साहाकार <span style="color: #0b5394;">कुलभूषण पंडित उर्फ</span> <strong><span style="color: #e06666;">"राजकुमार"</span></strong> इस दुनिया के फ़ानूसखाने से पिघल गया। जिसके अदाकारी ने बीते कई बरसों में हमारे दिलों पर अपने अंदाज की एक अनोखी नक्काशी टाँकी दी थी। जिसकी खूबसूरती कई सदियों तक <span style="color: #e06666;">'सपनीले पर्दे'</span><span style="color: black;"> की मायावी दुनिया में </span><span style="color: #444444;"><span style="color: black;">अपने खास अंदाज में तैरती रहेगी… <span style="color: #0b5394;">जिसमें झक्क सफ़ेद लिबास था तो बार-बार ओठों से लगने वाली सिगार भी थी। गले से लगा रहने वाला स्कार्फ था तो अक्सर जुबां पर तैरते रहने वाला 'जानी'</span> </span></span><span style="color: #0b5394;">का सम्बोधन भी.… </span><span style="color: #444444;"><span style="color: black;">पर </span></span>सोचता हूँ ऐसे अल्फाज जिस ज़ुबान से निकले होंगे, क्या वह भी लड़खड़ाई होगी ! </div>
<div style="text-align: justify;">
जो अपने निभाए साहाकारों में दुनिया भर के सख्त लोहे के साथ अपने मीनारों पर इतराते तुर्शीबाजों की खिड़कियों के सजीले सीसे जज्ब कर चूका हो..... आखिर वह अपने अंतिम वक्त में क्या सोचता होगा ?</div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2crAg5WIUGjz2PXdlS71Z1PVgzhcF5ii0hLRIbf-XZj5SWJVVruPJfYZBT1qaTu6kAAyyEcTuxt4hsZiSCPpweGvAg_VL6STH9pz4GcdNFLlYlqDchXvFJW7_-TqCVR0fJH86LekHusc/s1600/imagesCA598M9H.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2crAg5WIUGjz2PXdlS71Z1PVgzhcF5ii0hLRIbf-XZj5SWJVVruPJfYZBT1qaTu6kAAyyEcTuxt4hsZiSCPpweGvAg_VL6STH9pz4GcdNFLlYlqDchXvFJW7_-TqCVR0fJH86LekHusc/s1600/imagesCA598M9H.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
शायद! अपने अंतिम समय में नितांत अकेले हो चुके राजकुमार ने यह महसूस कर लिया था कि उनका 'वक्त' अब काफी करीब है, इसीलिए अपने पुत्र पुरू राजकुमार को उन्होंने अपने पास बुला कर कहा कि <span style="color: #e06666;">देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होती हैं इसलिए मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा किसी और को नहीं बताना... </span><span style="color: #e06666;">मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही किसी और को बताना !</span></div>
<div style="text-align: justify;">
यह तो फिल्मों की मायावी दुनिया का एक रुखा सच है कि अपने अंतिम दिनों में ऊँची से ऊँची मीनार भी यहां एक दम खाली हो जाती है। जीवन के एकाकी कैनवास पर रूखी और बेजार तस्वीरें उभरने लगतीं हैं और सर-आँखों पर बिठाये रखने वाला भारतीय समाज बिसराने लगता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<strong><span style="color: #0b5394;">खैर ! उस अजीम साहकार को याद करते हुए उसकी इबारतों को याद करते हैं।</span></strong> </div>
<div style="text-align: justify;">
संवाद अदायगी के बेताज बादशाह <span style="color: #e06666;">राजकुमार <span style="color: black;">का जन्म </span><span style="color: black;">आजादी के पहले</span> </span><span style="color: black;">8 अक्टूबर 1926 को पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हुआ था। राजकुमार ग्रेजुएशन करने के बाद मुंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में सब इन्स्पेक्टर के रूप में काम कर रहे थे। यहीं उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता बलदेव दुबे से हुई। जो </span>राजकुमार के बातचीत के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने राजकुमार से अपनी फिल्म "शाही बाजार" में अभिनेता के रूप में काम करने की पेशकश की। यहीं शुरू होती है <span style="color: #134f5c;">अपने तरह के एक अकेले</span> <span style="color: #e06666;">राजकुमार</span> की बिल्कुल फ़िल्मी कहानी। साथ ही एक बात का जिक्र बेहद जरुरी है और वह राजकुमार के अक्खड़ अंदाज का.. जो उनकी स्टाइल और एक्टिंग की तरह ही अनोखा था। राजकुमार अपने साहाकारों में ही नहीं अपनी असल जिंदगी में भी सेल्फ रिस्पेक्ट के लिए जीते रहे। ऐसे सैकड़ों किस्से फिल्म इंडस्ट्री में आज भी मशहूर हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #0b5394;">वैसे फिलहाल उनके अभिनय जगत से ही रू-ब-रू होते हैं। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: black;">1952 मे "रंगीली" में एक छोटी सी भूमिका करने के</span> बाद राजकुमार लगातार कई फिल्मों में दिखाई दिए। लेकिन 1957 मे आयी महबूब खान की फिल्म "मदर इंडिया" के जरिये राजकुमार ने गांव के एक किसान की भूमिका में जबरदस्त छाप छोड़ी। इस फिल्म से वह इंडस्ट्री में अभिनेता के रूप में स्थापित हो गए। </div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद 1959 मे रिलीज हुई फिल्म "पैगाम" में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के एक्टिंग किंग दिलीप कुमार थे लेकिन राजकुमार ने यहां भी अपने अंदाज में दर्शकों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी। इसके बाद दिल अपना और प्रीत पराई, घराना, गोदान, दिल एक मंदिर और दूज का चांद जैसी फिल्मों के जरिए दर्शकों के बीच अपने अभिनय की रौशनी बिखेर दी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSfOvMTaWR7rrR4TucSNKRHzj_0P1vmWg2YVLFAVWMWz0RDqvR152CRapRjEH6npVMofWS2SoPuW19rxynD818Nj8ez7FTdT-dpl7a-xA9otlMNypzactayCoUkPpqkDwEwNNIJUlXqOw/s1600/imagesCABELYTD.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSfOvMTaWR7rrR4TucSNKRHzj_0P1vmWg2YVLFAVWMWz0RDqvR152CRapRjEH6npVMofWS2SoPuW19rxynD818Nj8ez7FTdT-dpl7a-xA9otlMNypzactayCoUkPpqkDwEwNNIJUlXqOw/s1600/imagesCABELYTD.jpg" height="160" width="320" /></a>बी. आर. चोपड़ा की फिल्म वक्त में राजकुमार का बोला गया संवाद <span style="color: #e06666;">"चिनाय सेठ" जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते,</span> दर्शकों के बीच आज भी लोकप्रिय है। इसी तरह उस दौर में पाकीजा में बोला गया उनका डायलॉग <span style="color: #e06666;">"आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जायेगें" </span>इस कदर लोक प्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे उनकी आवाज की नकल करने लगे।</div>
<div style="text-align: justify;">
उन्होंने हमराज, नीलकमल, मेरे हुजूर, हीर रांझा और पाकीजा जैसी फिल्मों की रूमानी भूमिकाएं भी स्वीकारीं तो वर्ष 1978 मे आयी फिल्म "कर्मयोगी" के जरिये राज कुमार ने अपने दो रूपों के कारण दर्शकों के दिलों में अपने नाम की एक कील ही ठोंक दी। </div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5DBxnbo0O8yf8lWRVGhyfAVAFR7SMUY1cZ53bZU-Z4lZrJOCxqk9WiEdq7cRuIlKzKdYvI_jQcqfqLuUf8yzvyeZQCei2DGqblhnK1sbhztCUmdSQ3LEe7YBypJrPTtQ1PJEod7AYCm4/s1600/untitled.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5DBxnbo0O8yf8lWRVGhyfAVAFR7SMUY1cZ53bZU-Z4lZrJOCxqk9WiEdq7cRuIlKzKdYvI_jQcqfqLuUf8yzvyeZQCei2DGqblhnK1sbhztCUmdSQ3LEe7YBypJrPTtQ1PJEod7AYCm4/s1600/untitled.png" height="200" width="157" /></a>वर्ष 1991 में सुभाष घई की फिल्म सौदागर में राज कुमार वर्ष 1959 मे प्रदर्शित फिल्म "पैगाम" के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के साथ काम किया। फिल्म में एक्टिंग की दुनिया के दो महारथियों का साथ देखने लायक है। लेकिन नब्बे के दशक के अंतिम सालों में राजकुमार ने फिल्मों मे काम करना बहुत कम कर दिया। इस दौरान उनकी तिरंगा, पुलिस और मुजिरम, इंसानियत के देवता, बेताज बादशाह, जवाब, गॉड और गन जैसी फिल्में रिलीज हुईं। जिसमें से तिरंगा तो आज भी देश-भक्ति से भरे राष्ट्रीय दिवसों पर टेलीविजन पर 'फहरता' रहता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="text_exposed_show">बावजूद 'रंगीली' फिल्म के बाद <span style="color: #e06666;"> राजकुमार</span> ने पचास से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। जिनमें से कुछ प्रमुख फिल्मों के अलावा दुल्हन, जेलर, दिल अपना और प्रीत पराई, अर्धांगिनी, उजाला, घराना, दिल एक मंदिर, फूल बने अंगारे, दूज का चांद, प्यार का बंधन, ज़िन्दगी, काजल, लाल पत्थर, ऊंचे लोग, नई रौशनी, मेरे हुज़ूर, वासना, हीर-रांझा, कुदरत, मर्यादा, हिंदुस्तान की कसम। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में उन्हें कर्मयोगी, चंबल की कसम, धर्मकांटा, जवाब आदि फ़िल्में की। </span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="text_exposed_show"></span> </div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="text_exposed_show" style="color: #e06666;">पूरी इबारत के बाद अब यह कहना कत्तई मुगालता नहीं होगा कि अब राजकुमार जैसे अक्खड़ अभिनेता इस दुनिया में कभी नहीं आएंगे…… </span></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<span class="text_exposed_show"></span> </div>
<div style="text-align: justify;">
-<strong>अमृत सागर </strong></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-16059308582689814612014-07-01T06:00:00.001-07:002014-07-01T06:00:29.757-07:00बलराज साहनी: मानवीय संघर्ष और संवेदनाओं का चितेरा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">-दीवानसिंह बजेली</strong></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://i2.wp.com/www.samayantar.com/wp-content/uploads/2013/06/balraj-sahni.jpg" style="background-color: transparent; border: none; clear: right; color: #cd3300; cursor: pointer; margin: 0px auto 1em; outline: none; padding: 0px; text-decoration: none; vertical-align: baseline;"><img alt="balraj-sahni" border="0" height="322" src="http://i0.wp.com/www.samayantar.com/wp-content/uploads/2013/06/balraj-sahni_thumb.jpg?resize=209%2C322" style="background-color: transparent; background-image: none; border: 0px; display: inline; float: left; height: auto; margin: 2px 7px 2px 0px; max-width: 600px; outline: none; padding: 0px; text-align: left; vertical-align: baseline;" title="balraj-sahni" width="209" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">बलराज साहनी </td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
एक ऐसे अभिनेता के रूप में, जो व्यावसायिक फिल्मों से जुड़ा होने के बावजूद अपनी प्रतिबद्धता में अटल रहा बलराज साहनी की तुलना हॉलिवुड और ब्रितानवी व्यवसायिक सिनेमा के चार्ली चेपलिन, वेनेसा रोडग्रेव और राबर्ट रेडफोर्ड जैसे अभिनेताओं से की जा सकती है। हिंदी फिल्मों को उन्होंने यथार्थवादी अभिनय की एक ऐसी शैली दी जो विशिष्ट है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<br />
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
यह सुखद संयोग है कि भारतीय सिनेमा और अभिनेता बलराज सहानी का जन्म एक ही माह और एक ही वर्ष हुआ। अपने आप में यह विडंबना है कि आज जब भारतीय सिनेमा इतना विशाल रूप धारण कर चुका है और अपनी यात्रा के सौ वर्ष मना रहा है वह और उसके प्रशंसक उस महान अभिनेता को भूल गए हैं जिसने अपने अभिनय से भारत की शोषित और दमित जनता के दुख-दर्द को सिनेमा के पर्दे पर साकार किया। इससे बड़ी दुख और शर्म की बात क्या हो सकती है कि दिल्ली में 25 से 30 अप्रैल तक चलने वाले सरकारी स्तर पर हो रहे समारोह में बलराज सहानी की न तो कोई फिल्म दिखलाई गई और न ही उन्हें याद किया गया। क्या यह ऐसा अवसर नहीं था जब यथार्थवादीवादी परंपरा की हिंदी व्यावसायिक सिनेमा की सबसे बड़ी देन दो बीघा जमीन को दिखाया जान चाहिए था?</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
बलराज साहनी का भारतीय फिल्मों के इतिहास में अपनी मानवीय संवेदनाओं और किसान-मजदूर के हमदर्द के रूप में एक अभिनेता के तौर पर अद्वितीय स्थान है। कलाकार के रूप में अपनी उपलब्धि के चरम पर पहुंचने के बवजूद न तो वह अपनी जड़ों को भूले और न ही भारत के संघर्षरत आम आदमी को। उनका जीवन एक ऐसे कलाकार का रहा जिसने समाज के प्रति अपने दायित्व का सच्चाई से निर्वहन किया। जनता के कठोर जीवन की वास्तविकता को अपनी कला में आत्मसात करने के लिए उन्होंने उनके संघर्षमय जीवन से तादात्म्य स्थापित किया। यही कारण है कि उनके चरित्र जैसे शंभू महतो (दो बीघा जमीन), पोस्ट ऑफिस का क्लर्क (गर्म कोट), एक मुस्लिम व्यापारी (गर्म हवा) व पठान (काबुलीवाला) चिरस्मरणीय हैं। वह ऐसे कलाकार थे जो जीवन और कला के पारस्परिक अंतर्संबंधों के अंतद्र्वंद्वों को कलात्मक स्वरूप देने के लिए कटिबद्ध रहे और वास्तविकता की सच्चाई को व उसके आंतरिक अंतद्र्वंद्वों को निरंतर प्रतिपादित करते रहे।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
बलराज साहनी का जन्म 1 मई, 1913 को रावलपिंडी में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है—उनका नाम वास्तविक नाम युधिष्ठिर था। उनके पिता एक कर्मठ व्यक्ति थे, क्लर्क की नौकरी छोड़कर एक अच्छे जीवन की तलाश में व्यापारी बन गए और समाज में एक संपन्न व आर्य समाज के अनन्य अनुयायी के रूप में जाने जाते थे। उनकी दो बहनें व एक भाई (लेखक व कलाकार भीष्म साहनी) थे। पढ़ाई में वह प्रखर थे।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
ज्यों-ज्यों वह बड़े होते गए और उच्च शिक्षा प्राप्त करते गए अपने पारिवारिक पुरातनपंथी विचारों के विरोधी बनते गए। उनके विचारों में उस समय एक नया मोड़ आया जब उन्होंने रावी नदी के किनारे इंडियन नेशनल कांगे्रस के 1929 के ऐतिहासिक अधिवेशन को देखा। इस अधिवेशन में जवाहरललाल नेहरू ने पूर्ण आजादी प्राप्त करने की घोषणा की थी।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
अगली घटना जिसने युवा बलराज को गहरे प्रभावित किया वह थी—ब्रिटिश सरकार द्वारा भगत सिंह व उनके कॉमरेडों को फांसी देने की। इस जघन्य व अमानवीय अपराध के प्रति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध देशव्यापी आक्रोश की लहर फैली। बलराज पर इस लहर का गहरा असर पड़ा। कॉलेज के दिनों से ही बलराज का रुझान साहित्य व नाटकों की ओर बढ़ता गया। बलराज के जीवन दर्शन में, उनके प्रगतिशील चिंतन में व उनकी शोषित जनता के संघर्ष के प्रति आस्था में एक क्रांतिकारी परिवर्तन तब आया जब वह बीबीसी (रेडियो) में उद्घोषक के कार्यकाल की समाप्ति पर मुंबई आए और उन्होंने इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोशियेशन (इप्टा) में अपनी पत्नी दमयंती के साथ नाटकों में काम करना शुरू कर दिया। इसी के साथ उनके विचारों पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद का असर बढ़ता गया।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
मुंबई इप्टा में प्रवेश करते ही उनका संपर्क ख्वाजा अब्बास से हुआ। उस समय अब्बास साहब के नाटक जुबेदा की रीडिंग चल रही थी और इसका निर्देशन स्वयं उन्होंने करना था। हालांकि उस समय उन दोनों का विशेष परिचय नहीं था। बलराज ने लंदन में उनकी कुछ कहानियां अवश्य पढ़ी थी। अचानक अब्बास ने घोषणा की :</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
”दोस्तो, मुझे खुशी है कि आज बलराज साहनी हमारे बीच में है। मैं इस नाटक को उन्हें इस आशा के साथ सौंपता हूं कि वह इसका हमारे लिए निर्देशन करेंगे।”</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<a href="http://i2.wp.com/www.samayantar.com/wp-content/uploads/2013/06/do-bigha-zameen.jpg" style="background-color: transparent; border: none; color: #cd3300; cursor: pointer; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; text-decoration: none; vertical-align: baseline;"><img alt="do-bigha-zameen" border="0" height="302" src="http://i2.wp.com/www.samayantar.com/wp-content/uploads/2013/06/do-bigha-zameen_thumb.jpg?resize=196%2C302" style="background-color: transparent; background-image: none; border: 0px; display: inline; float: left; height: auto; margin: 2px 7px 2px 0px; max-width: 600px; outline: none; padding: 0px; text-align: left; vertical-align: baseline;" title="do-bigha-zameen" width="196" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
बलराज ने जुबेदा का निर्देशन बड़े जोश व सफलता के साथ किया। इस नाटक की प्रस्तुति के साथ ही दोनों के बीच गहरी निकटता बन गई। वास्तव में यह नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ जो एक मुस्लिम लड़की व उसके परिवार के निजी संघर्ष को बृहद जन संघर्ष के परिपे्रक्ष्य में प्रतिपादित करता है। अब्बास ने धरती के लाल फिल्म में बलराज साहनी को मुख्य भूमिका में रखा और साथ ही उनकी पत्नी दमयंती ने भी इस फिल्म में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बलराज ने इप्टा के कई नाटकों में काम किया जिनमें महत्त्वपूर्ण है—इंसपेक्टर जनरल।</div>
<br />
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
दुर्भाग्यवश दमयंती की 28 वर्ष की आयु में अचानक मृत्यु हो गई और वह अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गईं। बलराज पर जैसे बज्रपात हो गया। पर धीरे-धीरे उन्होंने अपने नैराश्य, अकेलेपन व असाध्य दुख का इप्टा की गतिविधियों व रचनात्मक कार्यों में लग कर सामना किया।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
बलराज को बॉलीवुड में अपनी जगह बनाने के लिए विकट संघर्ष करना पड़ा। एक अभिनेता के रूप में वह अपनी कला में उच्च स्तर प्राप्त करना चाहते थे। उनकी शैली यथार्थवाद पर आधारित थी। जबकि बॉलीवुड में लगातार मनोरंज और रोमांस का बोलबाला होता जा रहा था। अंतत: वह स्वयं को बॉलीवुड में एक महान कलाकार के रूप में स्थापित करने में सफल हो पाए। उन्होंने 135 फिल्मों में अभिनय किया—धरती के लाल, दो बीघा जमीन, गर्म कोट व गर्म हवा भारतीय सिने जगत की कालजयी कृतियां हैं। इन फिल्मों में बलराज अपने चरित्रों के माध्यम से गहनता, सजीवता, जीवंतता व संवेनशीलता का अद्वितीय सम्मिश्रण कर दर्शकों के हृदयों में अमिट छाप छोड़ते हैं। ये चरित्र हमारे समाज के प्रतिनिधि व परिचित हैं जिनसे दर्शक एक सहज तादात्म्य स्थापित कर लेता है। यथार्थवाद और संवेनशीलता उनकी कला की शक्ति है। उन्होंने सीमा (1955) व सोने की चिडिय़ा (1958) में चिरस्मरणीय चरित्रों का किरदार निभाया है। ये चरित्र कलाकार के नैतिक, सामाजिक व राजनीतिक चेतना व प्रतिबद्धता के कारण ही प्राणवान बन गए।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
धरती के लाल जहां एक ओर बलराज के मानवीय दृष्टिकोण व उनकी मानवी आजादी के प्रति गहन आस्था की द्योतक है, दूसरी ओर इस फिल्म ने एक नई प्रवृत्ति का सूत्रपात किया जिसका विकास व अभिवृद्धि विमल राय व सत्यजीत राय ने किया और भारतीय सिनेमा को विश्व सिनेमा के इतिहास में एक सम्मानजनक स्थान दिलवाया।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
धरती के लाल (1946) अब्बास का निर्देशन के रूप में पहला प्रयास था। बिजोन भट्टाचार्य के नाटक नवना व कृष्णचंदर की कहानी अन्नदाता पर आधारित इस फिल्म की कहानी अब्बास व बिजोन भट्टाचार्य ने लिखी। इसके गीत लिखे सरदार जाफरी और पे्रम धवन ने। यह पहली भारतीय फिल्म है जिसे सोवियत यूनियन में व्यापक रूप से 1949 में वितरण किया गया। यह फिल्म 1943 के बंगाल के अकाल पर एक कठोर व्यंग्य है। और साथ ही अकाल पीडि़त मानवों का हा-हाकार व अमानवीयकरण का सजीव दस्तावेज के रूप में मील के पत्थर के रूप में हमेशा याद की जाएगी।</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiHwujs8O93hRySd_Lmg1REpxXWNmbp82QfsQRh88aztATkp9xu6l447Rl6TWmWRiyrEiBSa5NaPuV-hsfjqloX6g9W58V4IsFg5bS6z0cU8esw6hQELemRnZ9ayZBZ3G1YZn65c7CNOU/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiiHwujs8O93hRySd_Lmg1REpxXWNmbp82QfsQRh88aztATkp9xu6l447Rl6TWmWRiyrEiBSa5NaPuV-hsfjqloX6g9W58V4IsFg5bS6z0cU8esw6hQELemRnZ9ayZBZ3G1YZn65c7CNOU/s1600/images.jpg" height="123" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">'धरती के लाल' फिल्म का एक दृश्य </td></tr>
</tbody></table>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
दो बीघा जमीन (1953) जिसे विमल राय ने निर्देशित किया। भारतीय सिने इतिहास में एक महान क्लासिकल फिल्म के रूप में सदैव याद की जाएगी। इस फिल्म के नायक के रूप में बलराज की अभिनय कला उच्चतम शिखर तक पहुंची। इस चरित्र का गहन यथार्थ चित्रण करने के लिए बलराज ने मुंबई में जोगेश्वरी में रहने वाले उत्तर प्रदेश के मेहनतकश लोग जो दूध बेचने का कार्य करते थे के जीवनशैली का गहराई से अध्ययन किया। इस फिल्म का जो भाग कोलकाता के रिक्शे चालकों के जीवन चित्रण से संबंधित था बलराज ने स्वयं कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा चलाया। इस अभ्यास के दौरान एक रिक्शा चालक बलराज के पास पहुंचा और पूछा, ”बाबू! यहां क्या हो रहा है?” बलराज ने उसे दो बीघा जमीन की कहानी सुनाई। उसकी आंखों में आंसू आ गए और बोला, ”यह मेरी कहानी है।” उसकी आंखों से अश्रुधार बहने लगी। बिहार में उसके पास दो बीघा जमीन थी जो उसने 15 साल पहले जमींदार के पास गिरवी रखी थी और उस जमीन को जमींदार से छुड़ाने के लिए वह कोलकाता में दिन-रात रिक्शा चला रहा है। और उसका शरीर क्राशकाय हो गया था। पर जमीन को जमींदार के कब्जे से छुड़ाने की आशा बहुत कम थी। उस रिक्शा चालक की दारुण-कथा को सुनकर बलराज भावतिरेक में डूब गए और मन ही मन कहने लगे, ”मुझसे भाग्यवान व्यक्ति कौन होगा, जो विश्व के एक लाचार व निस्सहाय व्यक्ति की कहानी सुना रहा है… मुझे पूर्ण शक्ति से अपना कर्तव्य करना चाहिए। तब मैंने इस अधेड़ रिक्शा चालक की अंतर्रात्मा को आत्मसात किया और अभिनय की कला को भूल गया… और अंतत: अभिनय के बुनियादी सिद्धांत किसी पुस्तक से नहीं मिले पर जीवन से।”</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
लगभग दो दशाब्दी बाद एम.एस. सत्थ्यू द्वारा निर्देशित फिल्म गर्म हवा जहां उनकी अभिनय कला की महानता का एक और उदाहरण है, वहीं यह फिल्म एक विश्व क्लासिक के रूप में बार-बार प्रदर्शित की जाती है। इस फिल्म का केंद्रीय चरित्र लखनऊ का एक मुस्लिम व्यापारी है जो भारत विभाजन की त्रासदी का शिकार है और घोर आंतरिक द्वंद्व से जूझ रहा है। उसके अधिकांश रिस्तेदार पाकिस्तान चले गए हैं।</div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAwIYaQRFj4U4NUZax5CFheYjdVHljqsKAEmtx8M-hKwoKw9-qYzd-lGRNLGP9JKgk0qqmjJhTmYyyQiB3nK3GYPdwdt88Dwa2o9wbU3-XSVodw5jE6mEkqTAr09mHQzEF9mabaZZuvMU/s1600/garam-hawa.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAwIYaQRFj4U4NUZax5CFheYjdVHljqsKAEmtx8M-hKwoKw9-qYzd-lGRNLGP9JKgk0qqmjJhTmYyyQiB3nK3GYPdwdt88Dwa2o9wbU3-XSVodw5jE6mEkqTAr09mHQzEF9mabaZZuvMU/s1600/garam-hawa.jpg" height="152" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">'गर्म हवा' फिल्म का एक दृश्य </td></tr>
</tbody></table>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
इस फिल्म में एक अत्यंत हृदयग्राही दृश्य है। मुस्लिम व्यापारी की लड़की आत्महत्या करती है। दिल्ली के एक रंगकर्मी जिसने इस फिल्म के प्रोडक्शन में काम किया, यह दृश्य कई बार शूट किया। यह दृश्य कला व जीवन के अंतर्संबंधों की जटिलता को दिखाता है। बलराज की प्रिय बेटी शबनम ने आत्महत्या का प्रयास किया और बाद में मानसिक बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु से बलराज टूट गए। यहां फिल्म में बलराज का चरित्र अपनी बेटी, जिसने अपने हाथ की नाड़ी काटकर आत्महत्या की, के मृत्यु शरीर को देख रहा है। कला व जीवन के इस अद्वितीय अंतर्संबंधों ने एक ऐसे दारुण दृश्य की संरचना की जो अविस्मरणीय है।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
बलराज एक मात्र कलाकार ही नहीं थे, वे लेखक भी थे। वे कहानी, जिसे उनके भाई भीष्म साहनी संपादन करते थे, लिखते थे। इप्टा के कलाकार होने के नाते वे जन संघर्षों में शामिल होते थे। इसी कारण आसिफ की फिल्म हलचल की शूटिंग के समय उन्हें गिरफ्तार किया गया और आसिफ ने कोर्ट से विशेष आज्ञा लेकर अपनी शूटिंग पूरी करवाई। इस दौरान बलराज पुलिस एस्कोर्ट में रहे।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
आज जब हम उनकी 100वीं जन्मतिथि मना रहे हैं, इस अद्वितीय कलाकार, जो कलाकार से पहले एक इंसान था, संघर्षरत जनता का साथी रहा और मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत था, हम उनका क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं।</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; text-align: justify; vertical-align: baseline;">
साभार: <a href="http://www.samayantar.com/remembering-balraj-sahni-n-100-years-of-cinema/" target="_blank">समयांतर </a></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-74461714875382484852014-07-01T05:33:00.000-07:002014-07-01T05:44:58.710-07:00लोकतंत्र का अर्थ बदलने लगा है: संजय कॉक <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<span style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"></span><br />
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="background-color: transparent; color: #990000;"><b><i>डाक्यूमेंटरी फिल्मकार संजय काक से उनकी नवीनतम फिल्म</i> </b></span><span style="background-color: transparent; color: blue; font-weight: bold;">माटी के लाल</span><span style="background-color: transparent; color: #990000; font-weight: bold;"> </span><b style="background-color: transparent;"><i><span style="color: #990000;">(रेड एंट ड्रीम) के बहाने आज के राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर</span><span style="color: blue;"> </span></i><span style="color: blue;">जितेन्द्र कुमार</span><span style="color: #990000;"><i> की बातचीत..</i></span></b></span></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhe_43-Fgn69VsCa9P-xlkYIIMWkR4yyvYj1xwVA4E4-0aAfXhns2s3yNa7oCsie8ce5H3wMfoQasOUby0Df0kFD2M8quYz9stFdSTPk94huNzSW3jdI0_FO1slSBMTrYKGdBRZ3XXMRg8/s1600/16DMCRED_1458346g.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: justify;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhe_43-Fgn69VsCa9P-xlkYIIMWkR4yyvYj1xwVA4E4-0aAfXhns2s3yNa7oCsie8ce5H3wMfoQasOUby0Df0kFD2M8quYz9stFdSTPk94huNzSW3jdI0_FO1slSBMTrYKGdBRZ3XXMRg8/s1600/16DMCRED_1458346g.jpg" height="133" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">संजय कॉक </td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="color: #990000;">‘माटी के लाल’</span></strong><strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="color: #990000;"> फिल्म</span></strong><strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="color: #990000;"> देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही राजनीतिक उथल-पुथल को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है। हालांकि यह प्रश्न थोड़ा अटपटा है, फिर भी मैं पूछना चाहता हूं कि ‘माटी के लाल’ फिल्म का आइडिया आपके दिमाग में कैसे आया, अनायास या आपकी लंबी तैयारी का हिस्सा था?</span></strong></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: #990000;"><b><br /></b></span><strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="color: #990000;"></span></strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
कुछ सालों से मध्य भारत खासकर बस्तर, छत्तीसगढ़ में जो चल रहा है उसे देखकर कुछ लोगों को लगता है कि यह अपने आप ही हवा में पैदा हो गया है। इसका कोई इतिहास नहीं है। अखबारों में देखकर और सुनकर ऐसा लगता है कि माओवादी इन जंगलों में आए और बगावत शुरू हो गई या ज्यादा से ज्यादा कुछ सोच लिया तो कह देंगे कि इनका नेपाल के माओवादियों से कोई रिश्ता है! तो बात वहां से शुरू हुई कि भारत में क्रांतिकारी संभावनाएं कहां से पैदा होती हैं या क्रांति का इतिहास भारत में कहां से शुरू होता है। हम पाते हैं कि क्रांति की बात इस देश में 1947 से शुरू नहीं होती है, बल्कि उससे पहले भी इसकी बात होती रही है। 1947 के बाद हर साल किसी न किसी रूप में इस पर बात होती रही है। इसलिए जब लोग कहते हैं कि यह फिल्म क्रांतिकारी संभावनाओं पर एक दस्तावेज है, तो संभवत: इसलिए कि हमारी कोशिश यह थी कि हम कुछ ऐसी चीजों को जोड़ें जो हमें यह समझने में मदद करें कि इस देश में क्रांति की संभावना की बात सिर्फ माओवादियों के हाथ में ही नहीं है, बल्कि जो लोग उड़ीसा के नियमगिरी में खनन के खिलाफलड़ रहे हैं वो भी अपने को क्रांतिकारी कहते हैं, और जो पंजाब में मजदूरों-किसानों के साथ लड़ रहे हैं वो भी अपने को क्रांतिकारी कहते हैं। इसलिए इस फिल्म में उस इतिहास को दोहराने की बात नहीं थी, बल्कि क्रांति की संभावना तलाशने की एक कोशिश थी कि वो क्या है, उसके सूत्र क्या हैं।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRq0lWjn961FWbJCBEORdqiH1sNYf6u4mc5RgQRnY0q3gQij1rwrfynO-R_A-fcLmCZ3l7G7H1whBgUqzl6O3y-_pyzXvMckEAb4uAcVM26pqGKyJBGTgQ4m_AOcC8kyj0xoHqCQlVKRk/s1600/red-ant-dream.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRq0lWjn961FWbJCBEORdqiH1sNYf6u4mc5RgQRnY0q3gQij1rwrfynO-R_A-fcLmCZ3l7G7H1whBgUqzl6O3y-_pyzXvMckEAb4uAcVM26pqGKyJBGTgQ4m_AOcC8kyj0xoHqCQlVKRk/s1600/red-ant-dream.jpg" height="228" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">आपने 1995-96 में एक फिल्म बनाई थी ‘वन वीपन’ (एकलौता हथियार), जिसमें वोट डालने में ही लोगों को अपनी सारी समस्याओं का समाधान दिखता है, उसके बाद 1999 में नर्मदा घाटी में चल रहे संघर्ष पर ‘पानी पे लिखा’ (वर्ड्स ऑन वाटर) फिल्म बनाई और 2006-07 में ‘जश्न-ए-आजादी’, जो कश्मीर के बारे में है। ‘माटी के लाल’ (रेड एंट ड्रीम) जो इस सीरीज की चौथी फिल्म है, इन में आपस में कहीं न कहीं कोई तार जुड़ा हुआ है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
आप बिल्कुल सही समझ रहे हैं, वन वीपन 25-30 मिनट की छोटी सी फिल्म थी, जो कॉलेज के विद्यार्थियों को बताने के लिए बनाई गई थी और लोकतंत्र इसकी विषयवस्तु थी। यह फिल्म आजादी की 50वीं वर्षगांठ पर बनाने के लिए दी गई थी। इसे दो राज्यों-तमिलनाडु और पंजाब के दलित एक्टिविस्टों से चुनाव से पहले और बाद में बात करने के बाद बनाया गया था। फिल्म बनाने के दौरान पता चला कि लोकतंत्र का अर्थ बदलने लगा है या फिर बदलवाया जा रहा है। उस दौरान मुझे यह भी समझने में मदद मिली कि लोगों और राजसत्ता के बीच रिश्ता क्या है, लोगों की समस्याओं की सुनवाई कहां होती है। जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं उसमें लोगों की बात सुनी जाती है या नहीं? जब हमने 1999-2000 में वर्ड्स ऑन वाटर (पानी पे लिखा) बनाई तो मेरी समझ से वह फिल्म कहीं भी बन सकती थी। मणिपुर में बन सकती थी, कश्मीर में बन सकती थी या फिर कहीं और भी बन सकती थी। लेकिन नर्मदा को हमने इसलिए चुना, क्योंकि उसका एक लंबा इतिहास था, बहुत ही साफ बातें कह रहे थे वे लोग। आंदोलनकारियों के तर्क स्पष्ट थे, क्योंकि वे लोग अहिंसक तरीके से अपनी बात कह रहे थे। इसलिए मुझे लगता था कि जब कहीं हिंसा हो रही होती है और बंदूक का प्रयोग हो रहा होता है तो तात्कालिक रूप से उन मसलों का आकलन करना मुश्किल हो जाता है। हिंसा का प्रभाव काफी ज्यादा होता है। इसलिए मैंने सोचा कि नर्मदा घाटी में जो हो रहा है, उसे ही देखा जाए। घाटी में लंबे समय से संघर्ष चल रहा था, सुप्रीम कोर्ट का सात-आठ साल के बाद फैसला आया था बांध के खिलाफ और फिर से बांध बनने लगा। जिस तरह वहां के लोगों की नैतिक और सैद्धांतिक लड़ाई को सरकार ने उठाकर बाहर फेंक दिया और खासकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से, तो उसे जबर्दस्त नुकसान हुआ। तब मुझे लगा कि अपने काम के क्षेत्र का विस्तार किया जाना चाहिए। 2002 में पानी पे लिखा बनाने के बाद मैं कश्मीर गया और जश्न ए आजादी बनाई। उसका इसके साथ संबंध तो है, क्योंकि मुझे लगने लगा आखिर जिसे हम लोकतांत्रिक अधिकार कहते हैं वह क्या सिर्फ नई दिल्ली तक आसपास के दो तीन जिलों तक सीमित है या सचमुच देश में पूरे देश में लोकतंत्र है। मेरे लिए यह फिल्म इसी लोकतंत्र की तलाश के बारे में है। इस लोकतंत्र में जो एक क्रांतिकारी लहर शुरू से रही है और जो लोग अपने को क्रांतिकारी कहते हैं, उनका लोकतंत्र में विश्वास नहीं है। लेकिन यह भी हो सकता है कि वे लोकतंत्र को दूसरी नजर से देखते हों। इसलिए जब फिल्म बननी शुरू हुई थी तो मैंने कोई नक्शा बनाकर किसी भी फिल्म पर काम नहीं शुरू किया था, लेकिन मेरी चारों फिल्में, खासकर लंबी फिल्में पानी पे लिखा, जश्न-ए-आजादी और माटी के लाल, वे हैं तो लोकतंत्र के बारे में ही, पर वे आपस में जुड़ गई हैं।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अगर इन चारों फिल्मों के संदर्भ में हिंदुस्तान को आप कहां पाते हैं। क्या कहीं भी ‘इंडिया शाइनिंग’ या ‘इंक्रीडेबल इंडिया’ की कोई झलक मिलती है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
मैं कभी इन फिल्मों को मायूसी की नजर से नहीं देखता हूं, क्योंकि कभी-कभी ऐसा लगता है कि जब हम चीजों को बारीकी से देखते हैं तो महसूस होता है कि यह तो आलोचना है। लेकिन मैं समझता हूं कि लोकतंत्र की योजना (प्रोजेक्ट) 1947 में नहीं आयी और ऐसा भी नहीं है कि 1947 के बाद लोकतंत्र पूरी तरह आ गया। मेरी समझ से लोकतंत्र की योजना काफी लंबी है या कहिए कि यह ‘वर्क इन प्रोग्रेस’ (सतत चलता काम) है। मुझे लगता है कि हम सबकी यह जिम्मेदारी है कि हम हर दिन उस पर नजर रखें और किसी को हमला न करने दें। इसलिए मुझे लगता है कि जो भी संघर्ष चल रहे हैं, उन्हें ही मैं ‘इंक्रीडेबल इंडिया’ मानता हूं। जब आप फिल्म बना रहे होते हैं तो उन लोगों के साथ आपको रहने का अवसर भी मिलता है और जैसे वे जी रहे हैं और जो वे कर रहे हैं, उसे देखने का भी। मेरे हिसाब से ‘शाइनिंग इंडिया’ भी वही है।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">सरकार की विनाशकारी नीतियों का विरोध करने और नक्सलियों के प्रति सहानुभूति भी रखने वाले कई लोगों का कहना है कि आपने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को हथियार से लैस दिखाकर उनकी प्रशासन के सामने पहचान करवा दी, जो उनके लिए खतरा साबित हो सकता है। क्या इससे आपको बचना नहीं चाहिए था?</strong></div>
<div style="text-align: justify;">
<b><br /></b><strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"></strong></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-bQIHP-NCCPI-UDOzp2UlWmVOE8p2yt8UYIk_KFGUMFDhKYiBLfVD-6LNf_RHCSUdv-ZF1YwkBt5kjoQ6sSox28Nbhml-hnQE6De6312H0zi-8LNA5505-Q6s81C2cdaP0g_hnJE6J2w/s1600/naxalites4.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-bQIHP-NCCPI-UDOzp2UlWmVOE8p2yt8UYIk_KFGUMFDhKYiBLfVD-6LNf_RHCSUdv-ZF1YwkBt5kjoQ6sSox28Nbhml-hnQE6De6312H0zi-8LNA5505-Q6s81C2cdaP0g_hnJE6J2w/s1600/naxalites4.jpg" height="221" width="320" /></a></strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
देखिए, सरकार और कॉरपोरेटाइज मीडिया इस बात से सहमत होंगे कि छत्तीसगढ़ के जो आदिवासी हैं और लडऩे वाले हैं उनके बारे में किसी को कुछ पता न चले, उनकी शक्लें न दिखें, वे जीते-जागते लोग हैं या फिर हैवान हैं उनकी तस्वीर नहीं दिखनी चाहिए वे बिना शक्ल के होने चाहिए, जो बीच-बीच में निकलकर किसी नेता को अगवा कर लेते हैं, पुलिस बल पर आक्रमण कर देते हैं। उनकी शक्ल न दिखाना और उनकी पहचान छुपाना माइथॉलॉजी को बढ़ावा देना है। क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि जिन्होंने बंदूकें उठा ली हैं, चाहे वे कश्मीर में हैं या फिर बस्तर में, आखिर वे लोग कौन हैं और वे चाहते क्या हैं? हो सकता है कि जिन्होंने बंदूकें उठा ली हैं उन्होंने बहुत सोच-समझकर यह निर्णय लिया हो। यह भी हो सकता है कि वे बहुत तार्किक लोग हों और उनकी राजनीति हमसे ज्यादा विकसित हो। जब तक हम उनसे अवगत नहीं होंगे, खासकर फिल्मों में, मुझे लगता है यह ठीक नहीं हैं। अगर हम बस्तर में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी को फिल्म में 15-20 मिनट तक उनकी तस्वीर देखते हैं या फिर उन्हें भूमकाल में नाचते हुए देखते हैं, तो मैं समझता हूं कि यह फिल्म का बहुत जरूरी पहलू है। जो आदमी पीएलजीए या वर्दी पहन लेता है या जो महिलाएं अपने बाल कटवा लेती हैं या फिर जो युवक सौ रुपए की सस्ती-सी डिजीटल घड़ी पहन लेता है, जो उन्हें पार्टी की तरफ से मिलती है, तो समझ लीजिए कि उन्होंने सबसे पहले अपनी मौत चुन ली है। इसलिए जब मैं जंगल में गया तो हमसे उनके सीनियर कॉमरेड ने खुद कहा कि आप जिसे चाहें फिल्मा सकते हैं, जबकि हमने तब तक अपना कैमरा भी नहीं निकाला था। उन्होंने कहा कि आप फिल्म में किसको नहीं दिखाएंगे, यह मैं खुद बता दूंगा। वह सीनियर कॉमरेड यह इसलिए नहीं कह रहे थे कि वे कुछ सीनियर कॉमरेड को नहीं दिखाना चाहते थे या सिर्फ जूनियर कॉमरेड को ही दिखाना चाहते थे। उनका कहना था कि कुछ लोगों को इसलिए नहीं दिखाइए क्योंकि वे कभी-कभी सामान लाने बाहर जाते हैं और उनकी पहचान हो सकती है। इसलिए ये जो बहस है और आपका ये सवाल भी मेरे सामने कोई पहली बार नहीं आया है, बल्कि यह मध्यमवर्गीय चिंता है जो पहले भी कई जगह स्क्रीनिंग में आ चुकी है। हो सकता है कि मध्यमवर्गीय चिंता (मिडिल क्लास एंक्साइटी) के चलते बंदूकधारी व्यक्तियों की बात सुनने से, हिंसा-अहिंसा के बहस से उनकी बात कहने में थोड़ी सी डगमगाहट आ जाए। लेकिन मैं इससे बिल्कुल सहमत नहीं हूं। रही बात उन्हें न दिखाने की, तो जो चाहते हैं कि उनको न दिखाया जाए, उसे कौन फिल्मकार दिखा सकता है या दिखाएगा?</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">फिल्म माटी के लाल में एक सीन बार-बार आता है जिसमें पंजाब में कॉमरेडों का समूह नाटक करता है, जुलूस निकालता है, प्रदर्शन करता है, लेकिन गहरा संघर्ष कहीं दिखता नहीं है- भले ही वह पाश या भगत सिंह की शहादत मना रहे हों। जबकि जब हम छत्तीसगढ़ में भूमकाल का दृश्य देखते हैं, तो उसमें वास्तविक संघर्ष दिखता है। या फिर उड़ीसा के नियमगिरी की पहाडिय़ों में जो संघर्ष दिखता है वह पंजाब में नहीं दिखता है या कहिए कि ये सारी चीजें सचमुच नाटकीय लगती हैं। क्या आप भी मानते हैं कि वहां संघर्ष सिर्फ नाटकों या प्रदर्शनों तक ही रह गया है? जबकि हम अजय भारद्वाज की तीनों फिल्मों को देखते हैं तो सामाजिक स्तर पर काफी उथल-पुथल महसूस होती है, जो आपकी फिल्मों में नहीं दिखती। क्या मैं सही पढ़ रहा हूं आपकी फिल्मों को?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
इसकी दो वजहें हैं। फिल्म की संरचना बस्तर और नियमगिरी में है। पंजाब को इसमें लाने की कोशिश इसलिए थी कि हम उस संघर्ष को एक रूप में देखें और दर्शकों को वहां से थोड़ा बाहर निकाला जाए। हमें लगता था कि यह पंजाब से हो सकता है। आप मानेंगे कि पंजाब में गांव तो गांव नहीं रहा है, हरित क्रांति और पूंजीवादी कृषि के चलते पूंजी का प्रवाह जैसा शहर में हुआ है वैसा ही गांव में भी है और पूरे भारत में उस मॉडल का सबसे बेहतरीन उदाहरण पंजाब है। वैसे यह अलग बात है और जो फिल्म में नहीं है कि पंजाब में किसानों का आंदोलन धीरे-धीरे मजबूत हो रहा है। आपको पंजाब के बारे में अलग तरह से सोचना पड़ेगा, क्योंकि जो स्थिति नियमगिरी में है या देश के अन्य भागों में है, वह स्थिति किसानों की पंजाब में नहीं है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि वहां किसानों का आंदोलन नहीं है। अगर वहां किसी किसान की जमीन की नीलामी काकोई बैंक या सरकार नोटिस लगाती है, तो नीलामी के दिन दो-तीन हजार किसान अपने आप जमा हो जाते हैं और सरकारी अधिकारियों को वापस जाना पड़ता है। इसलिए अगर भगत सिंह या किसी के नाम पर दो-तीन हजार लोग जमा हो जाते हैं, तो इसका मतलब है कि यह किसी न किसी रूप में विचारधारात्मक प्रतिबद्धता (आइडियो-लॉजिकल कमिटमेंट) है, क्योंकि वे लोग भाड़े पर नहीं लाए गए हैं। इसलिए मैं उनके संघर्षों को कभी सांकेतिक नहीं मानता।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">लोगों का कहना है कि माटी के लाल फिल्म माओवादियों पर है, जबकि नियमगिरी में पूरे आंदोलन का नेतृत्व लिंगराज कर रहे हैं जो गांधीवादी समाजवादी हैं, आपका इसके बारे में क्या कहना है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
जहां कहीं भी मैं यह फिल्म दिखाने जाता हूं तो उसको लोग इसी नजरिए से देखते हैं कि यह फिल्म माओवाद के बारे में है, तो उसमें नियमगिरी क्यों है या पंजाब क्यों है? इससे मुझे भी बहुत दिक्कत होती है, जबकि हमारी मंशा यह थी ही नहीं कि हम सिर्फ माओवाद पर फिल्म बना रहे हैं। फिल्म की कोशिश यही थी कि हमारे लिए जिस तरह की लड़ाई लिंगराज आजाद और नियमगिरी सुरक्षा समिति वाले उड़ीसा में लड़ रहे हैं, उतनी ही अहमियत उनकी भी है जो बस्तर में लड़ रहे हैं। जिस तरह का मोबलाइजेशन पंजाब में संस्कृति के इर्द-गिर्द किया जा रहा है, माओवादियों ने वही सांस्कृतिक मोबलाइजेशन बस्तर में किया है। फिल्म का एक उद्देश्य यह था कि हम सिर्फ एक तरह के संघर्ष को पहचान न मानें। हम इतने जटिल समय में हैं कि पंजाब का पांच या दस एकड़ जमीन वाला संपन्न किसान भी अपने को लडऩेवाला मानता है और नियमगिरी के आदिवासी भी अलग तरह से संघर्ष कर रहे हैं। दोनों के संघर्ष एक से नहीं हो सकते हैं, लेकिन इस ‘बायोडावर्सिटी ऑफ रेजिस्टेंस’ में भी एक क्रांतिकारी संभावना का तार है। लोग चाहते हैं, जो स्थिति है इसको धीरे-धीरे सुधारें नहीं बल्कि बदलाब लाने की कोशिश करें, क्योंकि असली क्रांति तो बदलाव ही है और इसी के लिए कोशिश करनी है।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">फिल्म पानी पे लिखा और माटी के लाल में नियमगिरी में जो संघर्ष है, वह पूरी तरह अहिंसक है। लोगबाग सचमुच अहिंसक हैं और फिल्म को देखें तो पुलिस के अलावा किसी के पास कोई हथियार नहीं हैं, लेकिन सरकार और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल कोई भी नुमाइंदा उनकी एक भी बात मानने को तैयार नहीं है, तो क्या आपको लगता है कि उनके पास हिंसा के अलावा और कोई रास्ता बच जाता है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
आपके पहले सवाल के जवाब में मैंने कहा था कि यह फिल्म लोकतंत्र के बारे में है। लोगों को याद होगा कि कश्मीर में पहली बार लोगों ने 1989-90 में हथियार उठाए थे। लोगों ने बीसियों साल से लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कहनी चाही थी, लेकिन उनकी कोई बात नहीं सुनी गई और फिर स्थिति ऐसी बनी कि जब लोगों ने हथियार उठा लिए तो अब आपको पता है कि हालात क्या हैं। नर्मदा घाटी की लड़ाई हो या नियमगिरी की, कोर्ट के जरिए या डंडे के जरिए अगर आप लोगों की बातों की अवहेलना करेंगे या फिर उड़ीसा में ही पॉस्को के खिलाफ या टाटा के खिलाफ कलिंगनगर में चल रहे संघर्ष हैं, तो हम जानते हैं कि लोग वहां जी-जान से उसका जबर्दस्त विरोध कर रहे हैं। हर तरह से उन्हें बाहर करना चाह रहे हैं, लेकिन जब आप उनकी बात नहीं सुनेंगे, उन्हें रौंद देंगे और डंडे की बदौलत लोगों का विनाश करेंगे तो फिर 10-15 सालों के बाद अगर वही लोग या फिर उनमें से कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं और हिंसक संघर्ष के लिए तैयार हो जाते हैं तो यह हम सबकी जिम्मेदारी बन जाती है। लेकिन कॉरपोरेट मीडिया और सरकार उसे इस रूप में पेश करते हैं कि यह लड़ाई हिंसा और अहिंसा के बारे में है, जबकि बात लोकतंत्र को बचाने और लोकतंत्र को खत्म करने की होनी चाहिए।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2Y0b0Zjauu9lHZ-9Y9S62LCL7z0p7fZu1GCBvgbOXYeEUN6qojDJOLxN8V-jzvsFWDDqjSDnPBu-71fCjW3o6XblFUCPkjShLMgpYJuOXAHqnm_3tJ-evzk28tChAvgmvSUMb1j2EUqU/s1600/maxresdefault.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2Y0b0Zjauu9lHZ-9Y9S62LCL7z0p7fZu1GCBvgbOXYeEUN6qojDJOLxN8V-jzvsFWDDqjSDnPBu-71fCjW3o6XblFUCPkjShLMgpYJuOXAHqnm_3tJ-evzk28tChAvgmvSUMb1j2EUqU/s1600/maxresdefault.jpg" height="180" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">कुछ लोगों का आरोप है कि आप जैसे लोगों को भारतीय लोकतंत्र में सिर्फ बुराई ही नजर आती है, जबकि इस साल को छोड़ दीजिए तो जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) इतना अच्छा रहा है, भारत इतना विकास कर रहा है, लेकिन आपको कुछ भी अच्छा नहीं दिखता है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
अगर जीडीपी ही पैमाना है, तो भारत सचमुच विकास कर रहा है। चीन को देखें। वहां बहुत विकास हो रहा है और विकास के इस दौर में नदियां, पहाड़, जंगल और प्रजा… सबको बर्बाद कर दिया गया है और आने वाले सौ वर्षों तक पूरा देश इसके दुष्परिणाम भोगता रहेगा। इस 10-20 साल में जिसे हम विकास काल मानते हैं, सोचना चाहिए कि उसका इतना विरोध क्यों हो रहा है। पंजाब में हरित क्रांति के बाद क्यों लोग सड़क पर आ रहे हैं। दूसरी ओर दिल्ली में एसी बसें हैं, मेट्रो है और पॉश कॉलोनियां में जन सुविधाएं भी हैं, लेकिन अगर दिल्ली में ही हाशिए के लोगों को देखें तो पता चलेगा कि हालात क्या हैं। अगर जीडीपी की बात करें तो कापसहेड़ा और मानेसर के लोगों को भी देखा जाना चाहिए, जिनका जीडीपी बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन दो-दो शिफ्ट में काम करने के बाद भी उनके हाथ छह-सात हजार रुपए से अधिक नहीं आता है। आखिर स्थिति इतनी भयावह क्यों है? हर हाथ में मोबाइल को सोशल इंडिकेटर (सामाजिक समृद्धि का संकेतक)का पैमाना नहीं मान सकते। इसका असली पैमाना यह होगा कि बच्चों में मृत्यु दर कितनी कम हुई है, पहले से कितने कम लोग भूखे पेट सोते हैं, और ये सब देखें तो आपको पता चलेगा कि हालात बहुत ही खराब हैं।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">जब एनडीए की सरकार थी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात काफी जोर-शोर से उठाई गई थी और आप लोगों ने फिल्म्स फॉर फ्रीडम के नाम से एक बहुत ही सार्थक कार्यक्रम भी चलाया था, लेकिन जब यूपीए की सरकार आई तो यह कार्यक्रम लगभग या पूरी तरह थम सा गया। क्या आप या आपलोग सचमुच यह मानते हैं कि समस्या सिर्फ एनडीए के समय ही थी और यूपीए के आने के बाद सबकुछ ठीक हो गया या फिर आपलोग ही शिथिल पड़ गए। वास्तव में वक्त बदला है या चीजें यथावत हैं?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
आपका सवाल काफी बढिय़ा है। देखिए, भाजपा और कांग्रेस के बीच अंतर तो बहुत हैं। अगर भाजपा के शासनकाल में उनकी बात नहीं मानी जाती थी, तो अपने गुंडों को भेजकर तोडफ़ोड़ करवा देते थे, मारपीट पर उतर आते थे, लेकिन कांग्रेस बहुत ही चालाक पार्टी है, उसके पास शासन करने का लंबा इतिहास है। यूपीए और कांग्रेस की नीति बाजार से संचालित है, इसलिए ये सेंसरबोर्ड, गुंडागर्दी या सीधे बदमाशी के जरिए काम नहीं करती, बल्कि बाजार के जरिए भी उनका बहुत काम हो जाता है। आप देखेंगे कि मास मीडिया या टेलीविजन पर सेंसरशिप नहीं है, लेकिन क्या कारण है कि उन मुद्दों पर वहां पूरी तरह चुप्पी है जिनपर सरकार चाहती है? इसलिए बाजार के जरिए भी बहुत से काम हो जाते हैं और सीधे सेंसर की जरूरत भी नहीं पड़ती। रही बात फिल्ममेकर्स के कंपैन की, तो कंपैन तो कंपैन की तरह ही होना चाहिए। इसे पेशा नहीं बनाना चाहिए। लेकिन इस कंपैन का काफी असर हुआ है। देश के विभिन्न हिस्सों में प्रतिरोध के सिनेमा के बैनर तले छोटे-छोटे फिल्म फेस्टिवल होने लगे हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में लगातार फिल्में दिखाई जा रही हैं और जब हम इसकी तुलना करें तो दुनिया के किसी कोने में इस तरह फिल्में अभी नहीं दिखाई जा रही हैं, यह बड़ी उपलब्घि है।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">आपको फिल्म बनाते हुए तीस साल से अधिक हो गए, क्या कुछ बदला है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
अस्सी के दशक में जब मैं यूनिवर्सिटी से निकला तब से बहुत कुछ बदला है फिल्ममेकिंग के क्षेत्र में…</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">मैं टेक्नोलॉजी की बात नहीं कर रहा हूं…?</strong></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1l0IB0WgI1fwFtwefzELZ18qB_Nu7Y6qtm_mtU8YLw1r3R4TW5fKJ0qqXGLZN2BBf3LDo9UAoKwhf7ZF2teQ0EeCG1Bptr3Ly2qTmUtnwUcystD_ARjCPI2aQwCONtrBQYX8509aXWuY/s1600/RedAntDreamTN1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1l0IB0WgI1fwFtwefzELZ18qB_Nu7Y6qtm_mtU8YLw1r3R4TW5fKJ0qqXGLZN2BBf3LDo9UAoKwhf7ZF2teQ0EeCG1Bptr3Ly2qTmUtnwUcystD_ARjCPI2aQwCONtrBQYX8509aXWuY/s1600/RedAntDreamTN1.jpg" /></a></strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
देखिए, जो बदला है वो टेक्नोलॉजी से अछूता नहीं है। क्योंकि उस वक्त जो फिल्में बनती थीं, तो वही लोग होते थे देखने वालों में जो फिल्म बनाते थे। साल में दस-बीस फिल्में बनती थीं और सब एक-दूसरे को जानते थे। अब कोई फिल्म बनती है, तो अगर तीन सौ लोगों की क्षमता वाला ऑडिटोरियम है तो वह पूरी तरह भर जाता है। डिस्ट्रीब्यूशन काफी आसान हो गया है। खरीददार बढ़ गए हैं, तो कुल मिलाकर मेरा मानना है कि काफी कुछ बदला है और ज्यादातर चीजें तकनीक के आसान होने से हुई हैं। छोटे प्रोजेक्टर लेकर किसी भी जगह को आप स्क्रीनिंग स्पेस में तब्दील कर सकते हैं।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">वैसे यह सवाल काफी मूर्खता भरा है, फिर भी मैं पूछ रहा हूं कि क्या डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर जिंदगी जी जा सकती है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
नहीं, बिल्कुल नहीं। जब कोई व्यक्ति यह पूछने आता है कि इसमें मैं कैरियर बनाना चाहता हूं, तो मेरा स्पष्ट जवाब होता है कि नहीं, इसमें कैरियर तो कतई नहीं है। अच्छी डॉक्यूमेंट्री जुनून से बनती है और कैसे बनती है, इसे सब लोग जानते भी नहीं हैं। जब हम अपने सहयोगियों की फिल्म देखने जाते हैं और फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट लाइन देखते हैं, तब पता चलता है कि उनको सपोर्ट कहां से मिला है। फिर भी अच्छी फिल्में बन रही हैं और वे लोग बना रहे हैं जिनके पास मीडियम की समझदारी है, लेकिन वे बहुत संपन्न नहीं हैं, पर काम महत्त्वपूर्ण कर रहे हैं। डॉक्यूमेंट्री फिल्म कैरियर तो नहीं है और शायद इसी ने इसे बचाकर रखा है।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<strong style="background-color: transparent; border: none; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">क्या डॉक्यूमेंट्री फिल्म एक कल्चरल प्रोडक्ट के रूप में अब भारत में अपने आप जीवित रह सकता है। जबकि हिंदी फिल्मों का इतना बड़ा बाजार है और खरीददार भी हैं, डॉक्यूमेंट्री फिल्म का कोई बाजार बन पाया है?</strong></div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif; font-size: 15px; line-height: 22px; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
बिल्कुल, पहले एक छोटा तबका था जो इस तरह की फिल्में देखता था। मैं अक्सर कहता हूं कि इसे देखना और दिखाना संगीत की तरह है। बहुत लोगों ने इस पर मेहनत की है और उनकी मेहनत का ही यह परिणाम है कि अब पैसा भी आने लगा है। पहले जब हम फिल्म दिखाते थे, तो फिल्म के अंत में दो लोग आते थे कि क्या इस फिल्म की वीएचएस कॉपी मिल जाएगी, लेकिन जब आज आप किसी फिल्म की स्क्रीनिंग करें तो गारंटी मानिए कि अगर बाहर आपके डीवीडी पड़े हों तो सौ कापी तो जरूर बिक जाएंगी। इसलिए अब जब दर्शक देखने आते हैं, तो वे अपने पॉकेट में पैसे लेकर आते हैं और देखने के बाद खरीदते भी हैं, जो पहले बिल्कुल नहीं था।</div>
</div>
<div style="background-color: #fafafa; border: none; margin-bottom: 20px; outline: none; padding: 0px; vertical-align: baseline;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif;"><span style="font-size: 15px; line-height: 22px;">साभार: <a href="http://www.samayantar.com/interview-with-sanjay-kak-meaning-of-democracy/" target="_blank">समयांतर</a></span></span><span style="background-color: transparent; font-size: 15px; line-height: 22px;"><span style="font-family: Verdana, Geneva, Tahoma, sans-serif;"> </span></span></div>
</div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-60359616564676446142014-07-01T05:14:00.000-07:002014-07-01T05:23:35.175-07:00 ऑस्कर पुरस्कार : विदेश नीति के हथियार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<a href="http://i0.wp.com/www.samayantar.com/wp-content/uploads/2013/05/oscar-award-2013.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="http://i2.wp.com/www.samayantar.com/wp-content/uploads/2013/05/oscar-award-2013_thumb.jpg?resize=306%2C203" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>- रामजी तिवारी</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हाल ही में ऑस्कर पुरस्कारों की घोषणा की गई, और प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी दुनिया भर के टी.वी. चैनलों ने उस समारोह को सीधे प्रसारित किया। अगले दिन के समाचारपत्रों में इन पुरस्कारों से संबंधित खबरों की धूम रही। जिस फिल्म आर्गो को इस वर्ष का ऑस्कर पुरस्कार दिया गया, उसने दुनिया की प्रत्येक सी.डी. लाइब्रेरी में वर्षों तक के लिए अपना स्थान पक्का कर लिया। ऑस्कर पुरस्कारों का ठप्पा लगना इस बात के लिए काफी माना जाता है कि वैश्विक स्तर पर इस फिल्म की मांग भविष्य में भी हमेशा बनी रहेगी। जीतने वाली फिल्मों के अलावा यह बात ऑस्कर के लिए नामांकित फिल्मों पर भी लागू होती है। अगली बार जब आप सी.डी. लाइब्रेरी में जाएंगे, तो आपको वह दुकानदार उस सी.डी. रैपर के ऊपर लिखा ऑस्कर नामांकन का संदेश अवश्य दिखाएगा, और मजे की बात यह है कि आप उसे देखना भी चाहेंगे। पूरी दुनिया में ऑस्कर पुरस्कारों के प्रति यही मोह और भ्रम पाया जाता है, जबकि हकीकत यह है कि ये पुरस्कार अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री हॉलीवुड के पुरस्कार हैं, जिसे ‘एकेडमी आफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज’ नामक संस्था द्वारा प्रति वर्ष प्रदान किया जाता है। इनका आरंभ 1929 में किया गया था और इस वर्ष आर्गो का यह 85 वां ऑस्कर पुरस्कार है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इन पुरस्कारों को लेकर अपने देश में ‘मोह और भ्रम’ से आगे बढ़कर ‘पागलपन’ की स्थिति बनती दिखाई दे रही है। और इधर के वर्षों में वह काफी बढ़ गई है। स्लमडाग मिलिनेयर का उदाहरण हमारे सामने है। उस फिल्म को भारत में इस तरह से प्रचारित किया गया, गोया वह कोई भारतीय फिल्म हो, या वह भारतीय समाज को प्रतिबिंबित करती हो। वही ‘पागलपन’ इस साल भी लाइफ ऑफ पाई के लिए दिखाया जा रहा था। खैर … पुरस्कारों की घोषणा हुई, और उम्मीद के मुताबिक ही आर्गो फिल्म को इससे नवाजा गया। स्वतंत्र प्रेक्षक इस बात को पहले ही मान चुके थे, कि इस बार आर्गो या जीरो डार्क थर्टी में से ही किसी एक फिल्म को ऑस्कर दिया जाएगा। कारण साफ था। आर्गो ईरान में घटित 1979 की घटना पर आधारित है, जबकि जीरो डार्क थर्टी ओसामा बिन लादेन की खोज और उसके पाकिस्तान में मारे जाने की घटना को दिखाती है। जाहिर है, ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्मों में चुनाव के दौरान उस फिल्म के हाथ में बाजी लगी, जिसमें अमेरिका अपने भविष्य की संभावनाएं देखता है। इन अर्थों में एक दशक पहले की अपेक्षा, चार दशक पहले की घटनाओं में गोते लगाने को अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEipt2AVbEJwnXHQzS6PIf8qSZ70uilxf-brSjjG3uvOUuJKOZGAise8MMr8ZJQm435lriIzadS2TgU_vJBdmWba9Ape6YCUsMhipP_HSa7Gm4IbUjpHzF9MKhKQmBhMVeHWVP87y6040c4/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEipt2AVbEJwnXHQzS6PIf8qSZ70uilxf-brSjjG3uvOUuJKOZGAise8MMr8ZJQm435lriIzadS2TgU_vJBdmWba9Ape6YCUsMhipP_HSa7Gm4IbUjpHzF9MKhKQmBhMVeHWVP87y6040c4/s1600/images.jpg" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
हैरानी की बात यही है, कि एक तरफ जहां दुनिया में इन पुरस्कारों को लेकर ‘मोह और भ्रम’ का यह वातावरण बना हुआ है, वहीं दूसरी तरफ हॉलीवुड का फिल्म उद्योग इन पुरस्कारों के माध्यम से अमेरिकी विदेश नीति के हथियार के रूप में काम करता है। इस साल के पुरस्कारों से यह बात और स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है, कि साम्राज्यवादी और विस्तारवादी देशों की नीतियां अपने हिसाब से कलाओं को भी नियंत्रित करती हैं, और जिन कलाओं-विधाओं के ऊपर उस समाज को दिग्दर्शित करने की जिम्मेदारी होती है, वही कलाएं और विधाएं उन विस्तारवादी नीतियों के हाथों में खेलने लगती हैं। अन्यथा अकादमी के सामने दो बेहतरीन फिल्मों—लिंकन और लॉ मिज़राब्न—का विकल्प तो था ही, जिनके आधार पर वह अपने चेहरे को चमका सकती थी, लेकिन उसने अपने इतिहास को दुरुस्त करने के बजाय, पूर्व की भांति ही इन फिल्मों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया। तो आइये पहले यह जानने की कोशिश करते हैं, कि इस साल की ऑस्कर विजेता फिल्म आर्गो आखिर दिखाती क्या है, और अंतत: इस फिल्म से कौन सा संदेश ध्वनित होता है?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बेन अफलेक द्वारा निर्देशित यह फिल्म आर्गो ईरान में इस्लामी क्रांति के दौरान हुई उस ‘वास्तविक घटना’ को लेकर बनाई गई है, जिसमें 4 नव. 1979 को एक अतिवादी मुस्लिम गिरोह द्वारा अमेरिकी दूतावास पर हमला किया जाता है, और दूतावास के 60 से अधिक कर्मचारियों को बंधक बना लिया जाता है। संयोगवश इनमें से छह लोग किसी तरह से भागकर बगल के कनाडाई दूतावास में छिप जाते हैं। इन्ही 6 लोगों को सी.आई.ए. एक गुप्त मिशन के सहारे ईरान से सुरक्षित निकालने की योजना बनाती है। योजना के अनुसार एक ‘विज्ञान-फैंटेसी फिल्म’ बनाने वाली कंपनी के रूप में सी.आई.ए. के अधिकारी यह कहते हुए ईरान में दाखिल होते हैं, कि उन्होंने इस देश को अपनी फिल्म की लोकेशन के लिए चुना है। बाद में कनाडाई दूतावास में छिपे उन सभी छह लोगों को कनाडा का फर्जी पासपोर्ट देकर, फिल्म बनाने वाली उसी कंपनी का सहयोगी दिखा दिया जाता है। और एक नाटकीय अंदाज में 28 जनवरी 1980 को उन्हें सुरक्षित निकाल भी लिया जाता है। जाहिर है कि यह फिल्म उस मानसिकता को ध्यान में रखकर बनाई गई है, जिसमें अमेरिकी लोग अपने आपको ‘हीरो’ जैसे दिखान पसंद करते हैं।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiD-pQJAmPGukoCYfjgEdVAhHhv6Tdx-nQLBrQxKAODN74EB6KQAY9gMQCk-hQxiNxN6jDLSf5NTTYkQ8qKI2huuddUhQM0d26MpsbKO2_2mJPGi5RIkz1S3IlSCMdUCdTST0cpUsrxwY/s1600/argo-2012-movie-screenshot.png" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiD-pQJAmPGukoCYfjgEdVAhHhv6Tdx-nQLBrQxKAODN74EB6KQAY9gMQCk-hQxiNxN6jDLSf5NTTYkQ8qKI2huuddUhQM0d26MpsbKO2_2mJPGi5RIkz1S3IlSCMdUCdTST0cpUsrxwY/s1600/argo-2012-movie-screenshot.png" height="134" width="320" /></a></div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फिल्म को वास्तविक दिखाने के लिए ऐतिहासिक पात्रों और टी.वी. दृश्यों का भरपूर प्रयोग किया गया है। थ्रिलर फिल्मों को दिखाने में हॉलीवुड के पास अपनी महारत तो है ही। और इस फिल्म में जब ऐतिहासकिता के साथ उसे जोड़ा गया है, तो वह और आकर्षक बन गई है। लेकिन इसी चक्कर में फिल्म एक-पक्षीय और प्रोपेगंडा हो गई है। इसमें ईरानी लोगों को असभ्य दिखाया गया है, और ऐतिहासिक संदर्भो की अपनी व्याख्या की गई है। यह फिल्म न सिर्फ सी.आई.ए. को महिमामंडित करती है, वरन उस समूचे परिदृश्य को नजरअंदाज भी करती है, जिसमें यह घटना घटी थी। फिल्म कनाडा और न्यूजीलैंड के राजनयिकों द्वारा निभाई गई भूमिका को भी महत्त्वहीन बनाने का काम करती है, जबकि ऐसा माना जाता है, कि उन छह व्यक्तियों की रिहाई का मूल विचार कनाडा का ही था। तभी तो फिल्म को देखने के बाद कनाडा ने अपनी क्रुद्ध प्रतिक्रिया दी। उसके अनुसार ‘यह फिल्म सी.आई.ए. के लिए लिखी गई है, और हमारी भूमिका को महत्त्वहीन बनाती है। ‘ इन आपत्तियों के बाद इस फिल्म में कनाडा के लिए भी कुछ जोड़ा गया। वहीं न्यूजीलैंड की आपत्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि फिल्म को ऑस्कर दिए जाने के बाद 12 मार्च 2013 को वहां की प्रतिनिधि सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया, कि ‘इस फिल्म के सहारे हमारे राजनयिकों की मेहनत और साहस को कमतर करने का प्रयास किया गया है। ‘</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन सबसे तीखी प्रतिक्रिया ईरान द्वारा दिखाई गई। उसका कहना था, कि फिल्म में ईरान के पक्ष को बिलकुल भी नहीं दिखाया गया है और ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है। ईरान का यह भी मानना है, कि इसे पुरस्कृत करके हॉलीवुड ने अमेरिकी प्रचार युद्ध को ही पोषित किया है। इस फिल्म को लेकर आपत्तियां और भी हैं, जिसमें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और एकपक्षीय बनाने की बात शामिल है। लेकिन इन आपत्तियों से आगे बढ़कर उन मूल बिंदुओं की तरफ नजर दौड़ाना उचित होगा, जिन्हें ध्यान में रखकर इस फिल्म को पुरस्कृत किया गया है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया पर से योरोपीय वर्चस्व टूट जाता है, और दुनिया स्पष्टत: दो खेमों में विभाजित हो जाती है। एक अमेरिकी नेतृत्व में पूंजीवादी खेमा और दूसरा सोवियत नेतृत्व में साम्यवादी खेमा। दोनों ही खेमों का यह प्रयास रहता है कि अधिक से अधिक देशों को अपने पाले में लाया जाए। ऐसा करने के लिए लोभ, लालच, साम, दाम, दंड और भेद जैसे सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं। इन्हीं हथकंडों में अपनी गुप्तचर संस्थाओं की मदद से विभिन्न देशों में तख्तापलट तक कराया जाता है, और अपने हित वाली सरकारों को सत्तासीन किया जाता है। ईरान में भी 1953 में इसी तरह का एक सत्ता-परिवर्तन हुआ था। अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. और ब्रिटिश गुप्तचर संस्था एम.आई. 6 ने मिलकर मोहम्मद मुसद्देह की जनता द्वारा चुनी गई लोकप्रिय सरकार को सत्ताच्युत कर दिया था, और अपनी पसंद के ‘शाह’ की सरकार को सत्तासीन। मोहम्मद मुसद्देह उन साम्राज्यवादी ताकतों की आंखों में इसलिए खटक रहे थे, क्योंकि उन्होंने अपने देश की तेल संपदा का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उनकी जगह जब ‘शाह’ को सत्ता मिली, तो वह उन साम्राज्यवादी शक्तियों की गोद में बैठ गए, जो ईरान को दोनों हाथों से लूट रही थीं। लगभग तीन दशकों तक ईरान में अमेरिका समर्थित शाह की सरकार चलती रही। इस दौरान अमेरिकी तेल कंपनियों को ईरान में तेल उत्पादन की खुली छूट मिल गई थी, और वहां के प्राकृतिक संसाधनों को दोनों हाथों से लूटा जा रहा था। उधर ईरानी जनता तमाम तरह के कष्टों को झेल रही थी। शाह अपने देश में लगातार अलोकप्रिय होते जा रहे थे, और कुल मिलाकर लोगों के बीच यह धारणा बन गई थी, कि ईरान की इस बदहाली की जिम्मेदारी अमेरिकी हस्तक्षेप और लूट के कारण पैदा हुई है। 1967 और 1973 के अरब-इजरायल संघर्ष में भी ईरान इसी वजह से किनारे खड़ा रहा, जबकि वह युद्ध पूरे क्षेत्र में फैला हुआ था। ऐसे में वहां अयातुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति हो गई, और शाह को देश छोड़कर अमेरिका भागना पड़ा। इसी अफरातफरी और अमेरिका विरोधी माहौल में 4 नवंबर 1979 को एक इस्लामिक गुट द्वारा अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया गया और साठ से अधिक लोगों को बंधक भी बना लिया गया था।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आरंभ में उस इस्लामिक गुट की मंशा एक तात्कालिक मांग और प्रदर्शन तक ही सीमित थी और जिसे अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा हतोत्साहित भी किया गया, क्योंकि उससे ईरान की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगा, और अमेरिका द्वारा ईरान को अस्थिर करने की कोशिशें की जाने लगीं, इस्लामिक नेतृत्व वाली ईरानी सरकार का रवैया भी बदलने लगा। वह उस पूरी घटना को अपनी सरकार को मजबूती प्रदान करने के लिए इस्तेमाल करने लगी, और अमेरिका के सामने कुछ ऐसी मांगे रखी गई, जिनसे दुनिया भर में ईरान की गिरती हुई छवि को बचाया जा सके। एक—शाह को ईरान को सौंपा जाए। दो—अमेरिका ईरान में हुए 1953 के तख्तापलट के लिए माफी मांगें। और तीन—ईरान की अमेरिका में जब्त और संचित राशि को लौटाया जाए। जाहिर है, कि ये मांगें अयातुल्लाह के पक्ष में थीं, और इससे अपने देश में उनकी पकड़ मजबूत भी होने लगी थी। एक लंबी और थका देने वाली वार्ता के परिणामस्वरूप अंतत: इन बंधकों को 444 दिनों बाद 20 जनवरी, 1981 को रिहा किया गया, जिसकी मध्यस्थता अल्जीरिया ने की थी। बदले में अमेरिका ने ईरान की कुछ संपत्ति को तो लौटाया ही, साथ ही साथ दुनिया को यह आश्वासन भी दिया, कि वह भविष्य में उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इस पूरे बंधक संकट में दो बड़ी घटनाएं और हुई थीं। एक—जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है, कि छह कर्मचारियों को एक गुप्त अभियान के तहत छुड़ा लिया गया था, जिसमें कनाडाईन दूतावास की बड़ी भूमिका थी। और दो—24 अप्रैल 1980 को एक दूसरा गुप्त सैन्य-अभियान असफल भी हो गया था, और जिसमें अमेरिका के आठ सैनिक मारे गए थे।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQbO6yFFB7ZQZ0aYJT2Ba-Pt69uiem0ahlS21FWUjKEVzJlYvw0Ls8None_aQ44JkEPAHOduDBG9mJ_t2DcRAWhSFksHrTfgL-adwvBjtpaq6DR7LwLNsArejVssrvj2tP54ftLG6Wa4M/s1600/17argo-span-articleLarge.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQbO6yFFB7ZQZ0aYJT2Ba-Pt69uiem0ahlS21FWUjKEVzJlYvw0Ls8None_aQ44JkEPAHOduDBG9mJ_t2DcRAWhSFksHrTfgL-adwvBjtpaq6DR7LwLNsArejVssrvj2tP54ftLG6Wa4M/s1600/17argo-span-articleLarge.jpg" height="129" width="320" /></a></div>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फिल्म को देखने और उसके वास्तविक ऐतिहासिक परिदृश्य को समझ लेने के बाद शायद ऑस्कर पुरस्कारों की इस राजनीति को समझा जा सकता है। पहली बात तो यह कि आर्गो उस समूचे परिदृश्य को नहीं पकड़ती, वरन चयनित तरीके से अपने खास हितों की घटनाओं को पकड़ कर आगे बढ़ती है। दूसरे, वह जिन चयनित घटनाओं को पकड़ती भी है, उन्हें भी तोड़-मरोड़कर पेश करती है। और तीसरे यह कि, इसका परिणाम यह होता है, कि उस समूचे परिदृश्य की समझ लगभग उलट-सी जाती है। क्योंकि जिस सी.आई.ए. की वजह से ईरान में तख्तापलट होता है, और जिसके सहयोग से एक भ्रष्ट व्यवस्था को तीन दशक तक ईरानी लोगों पर थोपा जाता है, वही सी.आई.ए. इस फिल्म में हीरो की भूमिका में आ जाती है। वहीं दूसरी तरफ, उन कठिन दिनों को झेलने वाला ईरानी समाज खलनायक बन जाता है। और इन सबसे बढ़कर यह भी, कि इस फिल्म के द्वारा अमेरिका ने ईरान पर एक तरह का ‘कूटनीतिक हमला’ भी किया है। आज अमेरिका की नजर ईरान पर है, और समूचे खाड़ी-क्षेत्र में वही एक ऐसा देश है, जो अमेरिकी नीतियों को चुनौती देता आया है। संयुक्त राष्ट्र-संघ और योरोपीय संघ के साथ मिलकर अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंधों के सारे हथियार आजमा लिए हैं। अब इस फिल्म के सहारे सांस्कृतिक मोर्चे पर दुनिया भर में यह भ्रम फैलाया जा रहा है, कि ईरानी लोग असभ्य होते हैं, इसलिए उन्हें सबक सिखाया ही जाना चाहिए, और यह सबक ‘छल, बल और कल’ किसी भी तरीके से सिखाया जाना वाजिब है। हॉलीवुड फिल्म उद्योग ने इस ऑस्कर पुरस्कार के द्वारा अमेरिकी विदेश नीति के इन्हीं लक्ष्यों को संरक्षित किया है, न कि कला का सम्मान।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अमेरिका का प्रत्येक उद्योग इसी तरह से संचालित होता है, गोया दुनिया की सारी जिम्मेदारी उन्हीं के ऊपर हो। हॉलीवुड भी इससे अछूता नहीं है। वहां की फिल्मों में पूरी दुनिया को देखने का चलन बहुत पुराना है। वे इसे अपनी जिम्मेदारी भी मानते हैं। लेकिन जब उस दुनियावी दखल में अमेरिकी भूमिका की बात आती है, तो उनकी फिल्में मौन साध लेती हैं। और जब कोई फिल्म यह साहस दिखाती है, तो उसे किनारे कर दिया जाता है। ऑस्कर पुरस्कारों के 85 वर्षों की समूची सूची इस बात की गवाही देती है, कि उसने किस तरह से उन फिल्मों को किनारे किया है, जिनमें अमेरिका की दुनियावी दखल का खुलासा होता है। और साथ ही साथ यह भी, कि किस तरह से उन फिल्मों को पुरस्कृत किया गया है, जिन्होंने बदनाम अमेरिकी चेहरे को चमकाने का काम किया है। एक सवाल यहां यह खड़ा हो सकता है, कि आप अमेरिकी फिल्म उद्योग से यह अपेक्षा ही क्यों करते हैं कि वह अपने देशहित को छोड़कर एक निष्पक्ष नजरिये का प्रदर्शन करे। उसका फिल्म उद्योग यदि अपने देश के चेहरे को चमकाता है, तो इसमें गलत क्या है? बिलकुल … इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन दुनिया भर में यह ‘मोह और भ्रम’ क्यों पाया जाता है, कि ये पुरस्कार श्रेष्ठ फिल्मों को प्रदान किए जाते हैं और भारत जैसे देशों में टी.वी.चैनलों पर लाइव दिखाकर तथा समाचारपत्रों में उनकी खबरें पाटकर यह ‘पागलपन’ क्यों बढ़ाया जाता है? यह ठीक है, कि अमेरिका में बनने वाली फिल्म अमेरिकी दृष्टि से ही निर्मित होगी, लेकिन यदि वह दृष्टि ‘इतिहास के निरस्तीकरण’ और ‘फिल्म द्वारा पुनर्लेखन’ तक पहुंच जाए, तो उसे बेनकाब किया जाना चाहिए। ऐसे में यह जरूरी है, कि हॉलीवुड फिल्म उद्योग के इस खेल को न सिर्फ समझा जाए, जो वह ऑस्कर के माध्यम से खेलती आई है, वरन उसे खारिज भी किया जाए। आर्गो नामक फिल्म इसी खेल का हिस्सा है, और इसलिए इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
साभार : <a href="http://www.samayantar.com/oscar-award-and-foreign-policy-of-america/" target="_blank">समयांतर</a> </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="color: blue;">रामजी तिवारी </span><span style="color: #990000;">ने यह लेख 2013 में ऑस्कर पुरस्कारों की घोषणा के बाद लिखा था. वे बलिया (यूपी) में रहते हैं और पेशे से सरकारी कर्मचारी हैं लेकिन साहित्य, सिनेमा और सरोकार में उतने ही 'खेतिहर किसान'. उनकी 2012 में ऑस्कर पुरस्कारों पर उनकी किताब</span><span style="color: blue;"> 'कठपुतली कौन नचावे'</span> <span style="color: #990000;">काफी चर्चा में रह चुकी है. इसके अलावा वे साहित्य को समर्पित</span> <a href="http://sitabdiyara.blogspot.in/" target="_blank">सिताब दियारा</a><span style="color: #990000;"> ब्लॉग भी चलाते हैं.</span></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<a href="http://www.samayantar.com/oscar-award-and-foreign-policy-of-america/#"></a></div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-50271572619550891512014-06-27T02:50:00.000-07:002014-06-27T02:50:27.366-07:00सिनेमा: अभिव्यक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम: कमल स्वरुप<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><i>भारतीय सिनेमा के सौ होने के उपलक्ष्य में अपने तरह का एकदम अलहदा फिल्म-निर्देशक कमल स्वरुप से ’हंस- फरवरी- 2013- हिन्दी सिनेमा के सौ साल’ के लिए </i><span style="color: #990000;">उदय शंकर</span><i> द्वारा लिया गया एक साक्षात्कार</i></b><br />
<div>
<b><i><br /></i></b>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://tirchhispelling.files.wordpress.com/2012/07/323220_3932115137026_1189761367_o.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img src="http://tirchhispelling.files.wordpress.com/2012/07/323220_3932115137026_1189761367_o.jpg?w=538&h=358" height="133" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 13px; text-align: center;">कमल स्वरुप</td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
<div>
(८०-९० के दशक में सिनेमा की मुख्या धारा और सामानांतर सिनेमा से अलग भी एक धारा का एक अपना रसूख था. यह अलग बात है कि तब इसका बोलबाला अकादमिक दायरों में ज्यादा था. मणि कौल, कुमार साहनी के साथ-साथ कमल स्वरुप इस धारा के प्रतिनिधि फ़िल्मकार थे. वैकल्पिक और सामाजिकसंचार साधनों और डिजिटल के इस जमाने में ये निर्देशक फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। संघर्षशील युवाओं के बीच गजब की लोकप्रियता हासिल करने वाले इन फिल्मकारों की फिल्में (दुविधा,माया दर्पण और ओम दर बदर जैसी) इधर फिर से जी उठी हैं। आज व्यावसायीक और तथाकथिक सामानांतर फिल्मों का भेद जब अपनी समाप्ति के कगार पर पहुँच चूका है, तब इन निर्देशकों की विगत महत्ता और योगदान पुनर्समीक्षा की मांग करता है।<br />
<br />
कमल स्वरुप फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट पुणे के1974 के स्नातक हैं। घासीराम कोतवाल(1976),अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान (1978), गाँधी(1982), सलीम लंगड़े पर मत रो (1989), सिद्धेश्वरी(1989)जैसी फिल्मों में सहायक निर्देशक, संवाद लेखक, प्रोडक्शन डिजाइनर और शोधार्थी के बतौर इनका रचनात्मक सहयोग रहा है। बतौर निर्देशक-निर्माता कमल स्वरुप ने अभी तक सिर्फ एक फिल्म बनाई है- ओम दर बदर(1988), भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी तरह की एक मात्र कल्ट फिल्म, फिल्म फेयर पुरस्कार से पुरस्कृत। ओम दर बदर के अलावे कुछ डाक्यूमेंटरी फिल्में भी। दादा साहेब फाल्के और भारतीय फिल्म-इतिहास का अद्भुत अध्य्येता। फ़िलहाल दादा साहब फाल्के का महा-वृतांत रचने में मशगुल।<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://tirchhispelling.files.wordpress.com/2012/12/463099_3004821194900_1101066903_o.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img src="http://tirchhispelling.files.wordpress.com/2012/12/463099_3004821194900_1101066903_o.jpg?w=538&h=346" height="206" width="320" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;"><span style="font-size: small; text-align: start;">Tracing Phalke By kamal swaroop</span></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
<b>प्रश्न एक:</b> भारतीय सिनेमा की एक सदी बीत गई। तो, सबसे पहला सवाल यही कि सिनेमा क्या है? और इस आलोक में भारतीय-सिनेमा की विशेषताएं क्या हैं?<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप-</b> हमारा अधिकांश सिनेमा या तो वास्तविक जीवनकाल का एक संक्षिप्त संस्करण होने का प्रयत्न है या फिर किसी साहित्यिक कृति की जस की तस अनुकृति होने की कोशिश। मैं चाहता हूँ कि ऐसे फिल्मकार हो जो अपनी कृति को सदा सफल और लोकप्रिय मुहावरों में तिरोहित कर देने की जगह सिनेमा को साहित्य के नाट्यकृत पुनरुत्पादन की भूमिका से खुद को अलग कर पाठ,गति, ध्वनि और बिम्ब के सम्बन्ध को पुन्व्यर्ख्यायित करने का प्रयत्न करें। सिनेमा अभियक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम है। सिनेमा के वस्तुगत यथार्थ का लेखक के अंतर्जगत, नैतिकता या सौंदर्यशास्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये तत्व यथार्थ को दोष-पूर्ण बनाते हैं। सिनेमा- भावुकता और प्रतीकात्मता से रहित। शुद्ध कला कृति। ऐसा आलें रॉब ग्रिए का कहना है और मैं उनसे पूर्णतया सहमत हूँ।<br />
<br />
संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत दुसरे देशों की तुलना में बहुत आगे है। यूरोप का फिल्म-उद्योग हॉलीवुड के हमले के सामने घुटने टेक चुका है। केवल भारत है जिसका फिल्म-उद्योग आत्मनिर्भर है। किन्तु, सिनेमा की दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय फिल्में अभी तक नौटंकी और नाट्य-संगीत से ऊपर नहीं उठी हैं। शायद यही कारण है कि वह अब तक हॉलीवुड से बचा हुआ है।</div>
<div>
<b>प्रश्न दोः </b>भारतीय सिनेमा ‘राजा हरिश्चंद्र‘ से शुरू होकर ‘ओमदरबदर‘ से होते हुए वर्तमान तक आकर आता है. और इस यात्रा-क्रम में भारतीय-सिनेमा मिथक, विज्ञान, और संस्कृति का सम्मिलन लगता है. इन श्रेणियों(synthesis) की अभिव्यक्ति के रूप में सिनेमा को कैसे देखते हैं!! (The movie omdarbadar comingles mythology, science, tradition and creats the existentiality of the present. How do you see film as the expression of the synthesis of these categories !<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप-</b> आज जो भी मूल्य हैं सब अतीत के हैं। प्रारंभ में फिल्मों का उपयोग दुसरे माध्यमों में प्रकट कलाकृतियों को किसी स्थायी माध्यम में परावर्तित करने का प्रयास था। कथा-कहानियां, नाटक, या फिर रविवर्मा के पौराणिक चित्र। इन कृतियों के प्रतीकों में समकालीनता को तलाशते हुए उनके राजनैतिक रूपांतरण की कोशिश हुयी। फिर आये ऐतिहासिक आख्यान और संतों के जीवन- चित्र। फिल्में अतीत की स्मृतियों के व्यापक प्रचार-प्रसार का माध्यम बना। फिल्मों में ध्वनि के आगमन के बाद अतीत की उन्हीं मूक कहानियों को फिर से दोहराया गया, चित्रित किया गया। और, फिर आये सामाजिक समकालीन नाटकों और साहित्यिक कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण।<br />
<br />
सिनेमेटोग्रफिक यंत्रों का अविष्कार और विकास-क्रम अपने आप में एक स्वयंसिद्ध घटना थी।वह कला का माध्यम कब बनी और कैसे बनी ,वह दूसरी बात है लेकिन हमें ये बात भी नहीं भूलना चाहिये कि सिनेमेटोग्राफी जादूगरों, जांत्रिकों और तांत्रिकों के मिले जुले प्रयत्न थे, उनकी इच्छा शक्ति थी। कुछ लोगो का मानना है कि केवल एक प्राकृतिक संयोग भर था। अनेक नए उपन्यासकारों में सिनेमा के प्रति उत्पन हुये आकर्षण का कारण क्या था? वे कैमरे की वस्तुपरकता से नहीं बल्कि उसकी आत्मपरकता और कल्पनात्मक संभावनाओं से प्रभावित हुये थे। वे सिनेमा को अभिव्यक्ति का नहीं, बल्कि अन्वेषण का माध्यम मानते थे। और, उन्हें सर्वाधिक दिलचस्पी उस पदार्थ में हुई जिसे लेखन में व्यक्त करना ज़रा भी संभव नहीं था। दोनों इंद्रियों, आँख और कान, पर एक साथ खेल करना। इन बोलते चलचित्रों में कोई एक आदिम गुण है। और वह वर्तमान का हिस्सा है। सनातन वर्तमान का समूचा बल और वेग। सिनेमा, बिम्बों की प्रकृति का नहीं बल्कि उनकी संरचना का सवाल था। ये नयी फ़िल्मी सरंचनाएँ, बिम्बों और ध्वनियों की ये हलचलें दर्शक की समझ में फ़ौरन आ जाती हैं। इनकी ताकत साहित्य से बहुत बड़ी है। यही युग न्यू थियेटर, बाम्बे टाकीज और प्रभात का था।फिर बने तारे सितारे। उनके प्रजनन के अनुष्ठान, मानों सिनेमेटोग्रफिक मशीन की मूल प्रकृति, मेकेनिकल्स मीन्स ऑफ़ रिप्रोडक्शन,को मुंह चिढ़ाते। ये नए फोटोजेनेटिक्स (photo-genetics) पीढियों दर पीढ़ियों का राष्ट्रीय कैलेंडर रचने लगा। कथा केवल उनके प्रेमपुराण थे। हम उनके जन्म-मृत्यु से अपना जीवन नापने लगे। साहित्य-सिनेमा ने इस प्रजनन की निष्ठुरता और असहिष्णुता के सामने घुटने टेक दिए। पूँजी के हाथ एक कालजयी हरम लगा था। इस मादक अग्निस्नान में दर्शक स्वाहा होने लगा। काल की बलि चढ़ा।<br />
<br />
मैं अब सीधे ओम दर बदर पर आना चाहूँगा। कुछ घुमा-फिरा कर। किसी महान रचनाकार के शब्द हैं जिनका नाम मैं नहीं बताना चाहता हूँ। नक़ल से अकल वो रहे सदा। वो फिल्म मेरी कल्पना के टुकड़े थे और मैं भाषा के समान सरचना का आनंद ले रहा था। किन्तु मैं चाहता था कि एक ऐसे संसार का संवाहक बनूँ जो कि न तो बिम्ब है, न ध्वनि। यही वह संसार है जिस तक मैं विभिन दिशाओं से, अनेक सड़कों से होकर पहुँचाना चाहूँगा और वो सत्य मेरे बचपन का दानव होगा। वह उसी दानव से बचने के लिए बुनी गयी कहानी थी। मृत्यु से बचने का मेरा उपहास-जनक अनुष्ठानिक-प्रयत्न और उसका भयावह अंकन। ओम फिल्म नहीं है, वह फिल्मों से पलायन का चित्रण है। मैं सिनेमा के संसार में भाग कर आया था, यथार्थ से छुपने किन्तु मैंने पाया कि सिनेमा मृत्यु भी है और पुनर्जीवन भी और ओम के द्वारा मैं भाग निकला, यह मैं दावे के साथ कहता हूँ। मुझे अपनी मॉक (mock)- मृत्यु का खेल खेलने में खूब मज़ा आया। ओम फिल्म नहीं, खुद को एक झांसा था और न ही मैं कोई फिल्मकार।<br />
<br />
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="http://tirchhispelling.files.wordpress.com/2012/12/300187_112406218871243_1609427079_n.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img src="http://tirchhispelling.files.wordpress.com/2012/12/300187_112406218871243_1609427079_n.jpg?w=538&h=356" height="131" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;"><span style="font-size: small; text-align: start;">Om darbadar(1988)</span></td></tr>
</tbody></table>
<br />
<b><br /></b></div>
<div>
<b>प्रश्न तीनः </b>सिनेमा अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में क्या हमारे सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को दिशानिर्धारित करने में सक्षम है? स्वातंत्र्योत्तर भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में हस्तक्षेप करने में यह कितना सक्षम हुआ है!! पूरी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में (एक-दो अपवादों को छोड़) कोई भी अच्छी राजनैतिक फिल्म नहीं बन पाई है। इसमें सेंसर बोर्ड की ज़िम्मेदारी है या साहस की कमी?<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप-</b> मेरे लिए सिनेमा अभिव्यक्ति नहीं कितु अभिव्यक्ति के विभिन्न व्याकरणों की जांच-पड़ताल है। जैसा की शुरू में कहा कि अन्वेषण है। वैसे भी रियल नारियल है, क्यों और सरपलस (surplus) पैदा किया जाये। हमें ‘भंगी’ फिल्मकारों की ज़रुरत है जो झाड़ू फेरे और इस रियल नारियल के खिलाफ जंग छेड़े। वर्ना पता नहीं लगता नेहरू जी की मुद्रा दिलीप कुमार से आई थी या दिलीप कुमार की नेहरू जी से। नर्गिस मदर इण्डिया पहले बनी या फिर शक्ल समान होने का कोई खानदानी राज़ है।<br />
<br />
मज़े की बात है कि फालके खुद स्वदेशी आन्दोलन के हिस्सा थे और तिलक के जीवन से प्रभावित थे। जब उन्होंने लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट देखी तो लगा हम अपने भारतीय बिम्ब कब परदे पर देखेंगे। ये विदेशी कल्पनाएँ हमारी चेतना को धीरे धीरे नष्ट कर देंगी। शुरू की फिल्मों के बिम्बों में गूढ़ राजनैतिक संदेश छुपे हुये रहते थे और अंग्रेजों को सेंसर बोर्ड की स्थापना करनी पड़ी थी। पौराणिक आख्यानों के बाद ऐतिहासिक फिल्मों के ज़रिये एक राष्ट्रवादी उतेजना को पैदा किया जाने लगा था। उसके बाद सामाजिक फिल्मों के ज़रिये समाज में व्याप्त रुढ़िवादी रीति-रिवाजो पर प्रहार किये जाने लगे।भक्ति काल के संतो पर बनी सभी फिल्में खूब सफल रहीं । फिल्मों के ज़रिये से एक आत्मविश्वास जगाया जा रहा था।<br />
<br />
अब रही बात आज की। सबसे पहले मैंने राजनैतिक फिल्मों की बात कुमार शाहनी से सुनी थी उन दिनों मैं उनकी फिल्म तरंग में काम कर रहा था। वे वामपंथी विचारधारा से जुड़े थे। मैंने समझा कि राजनैतिक फिल्में, सत्ता के शक्ति-संघर्षो की कथा होती है। उसे दर्शाने के लिए वे वामपंथी विचारों का या कहें तो फार्मूला का उपयोग करते थे। फिर जाना कि सत्ता-संघर्ष केवल देश में ही नहीं, यहाँ तक कि परिवार में भी चलती है और वह किसी भी आधार पर हो सकती है।<br />
<br />
अब मैं मनाता हूँ की एक ही बात को विभिन कोणों से देखने पर अलग घटना का निर्माण होता है।और वे सारेदृष्टिकोणअलग-अलग विचारधारा का निर्माण करती हैं जो कि हमारे निजी स्वार्थों से नियंत्रित होती हैं। निजी स्वार्थों से परे जाने के लिए हमे एक वस्तुनिष्ठ विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है जो कि एक असम्भव कार्य है। यहाँ पर समानुभूति की अपेक्षा की जा सकती है, जिस की कमी आज हम सब में है। मैंने यह बात केवल घटक में देखी है।<br />
<b><br /></b></div>
<div>
<b>प्रश्न चारः </b>समकालीन बॉलीवुड सिनेमा में तकनीकी विकास तो झलकता है किन्तु विषय वस्तु के स्तर पर अधकचरापन बार-बार उभरकर आता है। बड़े निर्देशकों की फिल्मों में भी! इसे बौद्धिकता के अभाव से जोड़कर देखा जाए या ईमानदारी के अभाव से? एक कला-माध्यम के रूप सिनेमा की स्वायत्तता को आप कैसे देखते हैं?<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप-</b> डिजिटल के आने से मुझे लगता है कि हम पहली बार स्वायत्तता को क्लेम कर सकतें हैं। सिनेमा अनुभूति और संवेदना, व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्ध का विज्ञान है। विभिन्न नाट्य एवं ललित कलाओ का समिश्रण है। किसी घटना के काल और दिक् के आयामों का रूपांकन है। इस स्तर की सूक्ष्मता का बॉलीवुड में पूर्णतया अभाव है। हमारे यहाँ अब तक प्रोडक्शन डिजाइन (production design) नाम की चीज़ का पता नहीं है। फिल्म का मतलब है स्टार कौन है और इसी बात पर पैसा उठता है। बॉलीवुड की अपनी भाषा है और उसका जीवन से कोई सम्बन्ध या जीवन के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है। और उन्हें देखना हमारी आदत बन चुकी है, हमारे काल का निर्णय उसी से होता है। जब आमिर खान चलता है तो सब लड़के उसी जैसे लगने लगते हैं। जब अमिताभ चला था तो सब उसी जैसे लगने लगे थे .<br />
<b><br /></b></div>
<div>
<b>प्रश्न पांचः</b> बालीवुड सिनेमा की भाषा पहले उर्दू हुआ करती थी फिर हिन्दी-उर्दू का मिला-जुला खूबसूरत रूप। अस्सी के दशक के बाद हिन्दी में बोले गए संवादों को दुबारा अंग्रेजी में दोहराने का चलन बढ़ा जिससे फिल्मों की लंबाई भी अनावश्यक रूप से बढ़ती थी और अब ज्यादातर सिनेमा के नामों में भी अंग्रेजी के नाम जोड़े जाने लगे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप-</b> बोलती फिल्मों के शुरू होने पर अधिकतर लेखक हिंदी उर्दू से आये थे, अधिकतर लाहौर से। अब तो हिंदी-उर्दू कोई भी नहीं पढ़ता। कुछ लोग एन एस डीसे भले आते हैं, पर अब मुंबई में हिंदी-उर्दू नाम मात्र के लिए बची है। धीरे धीरे बोलचाल की भाषा अंग्रेज़ी में बदल रही है। स्क्रिप्ट इंग्लिश में लिखी जा रहीं हैं। सवांद हिंदी में ज़रूर होते हैं पर अधिकतर अंग्रेजी फिल्मो के अनुवाद। हॉलीवुड इस बात को समझ रहा है और अपनी अधिकांश फिल्मों को भारतीय भाषाओं में डब करके एक नया बाज़ार खड़ा कर रहा है।</div>
<div>
<b>प्रश्न छः</b> क्या हिन्दी सिनेमा की दुनिया भी दो हिस्सों में बंट गई है- एक इलीटिस्ट सिनेमा जो मल्टीप्लेक्स में चलता है–दूसरा जो मझोले शहरों और कस्बों में?<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप</b>- मल्टीप्लेक्स वाले दर्शक भारतीय फिल्मो में हॉलीवुड या योरोपियन फिल्मो का व्याकरण ढूंढने जाते हैं ,छोटे शहरों के लोग शायद अभी तक उससे परिचित नहीं हैं। पर एक ज़माना था जब यह अंतर नहीं था। हमारा अपना खुद का विकसित व्याकरण था। प्रभात, न्यू थिएटर, राजकमल आदि काफी आगे थे और किसी भी वर्ग के दर्शक से संवाद करने में सक्षम थे.</div>
<div>
<b>प्रश्न सात:</b> भारतीय सिनेमा के सर्वांगीण के विकास के लिए क्या कुछ होना चाहिए?<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप-</b> उत्पादन का विकेंद्रीकरण। तत्पश्चात, प्रांतीय कृतियों का अनुवादों के जरिये आदान-प्रदान। नाट्य एवं ललित कलाओं के कर्मियों का एक-जुट मंच, हर शहर-प्रान्त में।साहित्यिक-पत्रिकाओं की तरह सिने-कृतियों का वितरण। हर छोटे शहरमें फिल्मोत्सव और सिने-शिक्षा के शिविर।</div>
<div>
<b>प्रश्न आठ:</b> ओमदरबदर की परंपरा से प्रभावित युवा निर्देशक सिनेमा के व्याकरण को बदलने की कोशिश कर रहे हैं. क्या इसे सार्थक बदलाव के रूप में देखा जा सकता है?<br />
<br />
<b>कमल स्वरुप-</b> कुछ दिन पहले मैंने आनंद गाँधी की Ship of Theseus देखी और उसे अपने काफी करीब पाया। पूर्णतः एक वैचारिक फिल्म, जो की ब्रहम-विभ्रम की प्रस्तुति के पार जाती है।<br />
<div>
<br />
<br />
<b>साभार -</b> <a href="http://www.hansmonthly.in/">हंस- फरवरी- 2013- हिन्दी सिनेमा के सौ साल</a><br />
<br />
<br /></div>
</div>
</div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-31126878807160237242014-06-27T02:48:00.001-07:002014-06-27T02:48:30.218-07:00एक बहस है, प्रतिरोध का सिनेमा!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWiXpRjrbB4vZTBP7LMW5bHhPiQShAedD8CRuHhC7bGK2qMRHZWRDCwki-dBTetTguBCbP27MzhCxqxhAbx0fQt80vxXGyo2LodJWKdjnGekv_aw7y7rCg_WXr24UWnA1yPmIThg24m5CE/s1600/1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWiXpRjrbB4vZTBP7LMW5bHhPiQShAedD8CRuHhC7bGK2qMRHZWRDCwki-dBTetTguBCbP27MzhCxqxhAbx0fQt80vxXGyo2LodJWKdjnGekv_aw7y7rCg_WXr24UWnA1yPmIThg24m5CE/s200/1.jpg" height="200" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;"><h3 style="text-align: left;">
<span style="color: #660000; text-align: justify;"><span style="font-weight: normal;">दूसरा बनारस फिल्म महोत्सव, 1-3 मार्च, 2013</span> </span></h3>
</td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
<i><span style="color: blue;">मुशेत की स्किन डीप में माटी के लाल संग....इज्जत नगर की असभ्य बेटियां ......पूछो न ! बस किस्से और किस्से .....गट्टू..... अन्हे घोरे दा दान....... ..आखिर!... यह कठपुतली कौन नचावे ...बस!...अब होगा ..प्रतिरोध!!!!</span></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अरे कुछ ज्यादा ही फ़िल्मी हो गया क्या ? पर आप लोगों को तो ऐसे ही डॉयलॉग पसंद आते हैं....जिन फिल्मों में इन्टरटेनमेंट, इन्टरटेनमेंट, इन्टरटेनमेंट, इन्टरटेनमेंट नहीं होता आप उसे नकार देते हैं …. </div>
<div style="text-align: justify;">
खैर! </div>
<div style="text-align: justify;">
आइये, अब बात करते हैं 'प्रतिरोध के सिनेमा' की.....जहाँ यह सिनेमा केवल मस्ती और इन्टरटेनमेंट का एक हिस्सा भर नहीं होता बल्कि सोच बदलने का एक माध्यम बन जाता है. मैं दावे से कह सकता हूँ 1 से 3 मार्च तक बनारस के एक गुमनाम सी वाटिका में संपन्न हुआ 'प्रतिरोध का सिनेमा : दूसरा बनारस फिल्म महोत्सव' का मंचन किसी मायने में भी रामायण के अशोक वाटिका में हुए सीता और हनुमान के प्रसंग से कमतर नहीं रहा. इस की तसदीक खुद वक्त करेगा. क्योंकि 'प्रतिरोध का सिनेमा' जो आग का अंकुर आवाम के दिलो में बो रहा है वो एक न एक दिन वटवृक्ष बनकर इस धसकती जमीं को अपनी जड़ों के आगोश में ले लेगा. तभी सही मायनो में प्रतिरोध की खेती शुरू होगी …… </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<h3>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3pUa0I4WoEpXw5i_vWRsnEi8VTZauh4r9ypLPTTy5pGdqxB6OaMBE1mg1ZLd_I0FKGoi0hrpYZZBl0Mf6qKbz5E3dAifkL_tgMYf71x7b-rK4DuDtoLgcdTF-pLm52fsOvGi8SaKw_LYk/s1600/download.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3pUa0I4WoEpXw5i_vWRsnEi8VTZauh4r9ypLPTTy5pGdqxB6OaMBE1mg1ZLd_I0FKGoi0hrpYZZBl0Mf6qKbz5E3dAifkL_tgMYf71x7b-rK4DuDtoLgcdTF-pLm52fsOvGi8SaKw_LYk/s200/download.jpg" height="200" width="190" /></a><span style="color: #660000;">आखिर क्या है ये 'प्रतिरोध का सिनेमा'? </span></h3>
<div>
<span style="text-align: justify;">एक ऐसा मंच जहाँ फिल्म दिखाने के नाम पर हाशिये के समाज की बात होती है! सामाजिक समता की बात होती है ...और इससे बढ़कर साम्राज्यवादी शक्तियों के जड़ों को खोखला करने की कसमें खायी जाती हैं ...उस सच से सीधे रूबरू होकर जो साम्राज्यवादी शक्तियां पूंजीवाद के सहारे सूचना की राजनीति और विचारधारा के जरिये कर रहीं हैं. </span></div>
<div style="text-align: justify;">
एक बात और... सिनेमा का नाम आते ही आपके आँखों पे जो ग्लैमर का रंगीन चश्मा चढ़ जाता है ये 'प्रतिरोध का सिनेमा' उस चश्में को निकाल फेंक ..हमारे इर्द-गिर्द की बदसूरत सच्चाई को नंगी आँखों से दिखा कर सिसकियाँ और मुठियाँ भींचने को मजबूर कर देती है.<br />
<br />
शायद तभी 'प्रतिरोध का सिनेमा' को साकार रूप देने में अपनी जी-जान लगा देने वालों में से एक 'द ग्रुप'-जन संस्कृति मंच के संयोजक संजय जोशी कहते हैं कि हम आपको 'हिलाने आये है! क्योंकि हम जो दिखाते हैं वो एक बहस है!' <br />
तभी तो पिछले आठ सालों में हिंदीपट्टी के गोरखपुर शहर से उठा डाक्युमेंट्री फिल्मों को देखने और दिखाने का यह आन्दोलन आज एक दर्जन से अधिक प्रमुख शहरों में अपनी सारी विसंगतियों के बाद भी फल-फूल रहा है. और इस संकल्प के साथ कि हम इस आयोजन को पूंजीवाद के समर्थन से नहीं करेंगे, माने नहीं करेंगे.</div>
<div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlwhygTBwVKvm8Hm9HmQvKyb7LhnE6F6feSESiK2tBfCmd16h99JM38iLepteENhzNdVY7FuAPEYcYIjk4Nh3sE7NBrW1Pu9gZR8U-rDEMMjAP1GpriVcZ4k5rEADeOA7Jinu1GObhf_sr/s1600/DSCN2268.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlwhygTBwVKvm8Hm9HmQvKyb7LhnE6F6feSESiK2tBfCmd16h99JM38iLepteENhzNdVY7FuAPEYcYIjk4Nh3sE7NBrW1Pu9gZR8U-rDEMMjAP1GpriVcZ4k5rEADeOA7Jinu1GObhf_sr/s200/DSCN2268.JPG" height="150" width="200" /></a></div>
<h3>
<span style="color: #660000;">आइये जानते हैं क्या-क्या हुआ इस आयोजन में....</span></h3>
<div>
<div style="text-align: justify;">
बनारस फिल्म सोसाइटी तथा ‘द ग्रुप’ जन संस्कृति मंच के संयुक्त तत्वाधान में जब बनारसी यूथ अस्सी घाट के अल्हड़ माहौल में ‘प्रतिरोध का सिनेमा' छोटा नागपुर वाटिका में देखने पहुंची तो उनकी आँखों की पुतलियाँ फैलनी ही थीं. उद्घाटन सत्र में जहाँ फिल्मकार संजय काक ने 'प्रतिरोध का सिनेमा' को सिर्फ मन बहलाने का माध्यम नहीं बल्कि सोच बदलने का एक माध्यम करार दिया. वहीं, उन्होंने कहा कि कला के रसिक चुटकी में पैदा नहीं होते वे तैयार किये जाते हैं. दिल्ली जैसे शहर में कड़ी मेहनत के बाद हम डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए दर्शक वर्ग तैयार कर पाए हैं. लगातार होने वाले ऐसे आयोजन समाज में एक स्थान बना रहे हैं और जिसके लिए कई फिल्मकार विश्वनीयता के साथ निरंतर काम कर रहें हैं. साथ ही संजय जोशी ने कहा कि यह आम जन का फिल्मोत्सव है जिसे हमने बहुत खास तरीके से तैयार किया है. जिसका सबसे मजबूत स्तम्भ आज का यूथ बनता जा रहा है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस आयोजन में एक खास और नई बात यह जुड़ गई कि 'द ग्रुप' ने अपने बैनर तले छोटी पर मारक कंटेंट को किताबों का रूप देने की शुरुआत कर दी. रामजी तिवारी की किताब ‘ऑस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावे’ के जरिये. </div>
<div style="text-align: justify;">
जिसमें बकायदे यह बताने की कोशिश की गई है कि पूरे विश्व में फिल्मों की सबसे बड़ी और ग्लैमर वाली 'ऑस्कर की खिचड़ी' पकती कैसे है? साथ ही इस फिल्मोत्सव में ‘सम्भावना कला मंच, से जुड़े बी.एच.यू. और विद्यापीठ के छात्र- छात्राओं की चित्रकला और फोटोग्राफ भी प्रदर्शित किये गये. यानि 'प्रतिरोध का सिनेमा' पूरे कोलॉज में इन्द्रधनुषी रंगों की छटां खुद में समेटे रहा .</div>
<div style="text-align: justify;">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFfXYyA8apxViddmeKs66hmNTstgnx6zPcbnH631Ya8vpn2-2IGwTu6ACaHrEW2PqPaU9Q9tE4SEGcCCe9VrghBZOGEMmhrpLv5WDsXotRZkGyKXB8XpiuEG9VJLoByYjCm5R-lu5SZ413/s1600/DSC05110.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFfXYyA8apxViddmeKs66hmNTstgnx6zPcbnH631Ya8vpn2-2IGwTu6ACaHrEW2PqPaU9Q9tE4SEGcCCe9VrghBZOGEMmhrpLv5WDsXotRZkGyKXB8XpiuEG9VJLoByYjCm5R-lu5SZ413/s200/DSC05110.JPG" height="150" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;">संजय काक </td></tr>
</tbody></table>
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहला दिन संजय काक और उनकी फिल्म ‘माटी के लाल’ के नाम रहा. १२० मिनट की इस फिल्म ने अपने देखने वालों को इस कदर मजबूर कर दिया कि वो इस फिल्म को देखने के बाद 'भारत और इन्डिया' के बीच की बहस को नये सिरे से शुरू कर पायें. यही कारण था कि संजय काक देर शाम तक लोगों के सवालों से रूबरू होते रहे.</div>
<div style="text-align: justify;">
दूसरे बनारस फिल्म महोत्सव के दूसरे दिन की फिल्में ‘स्त्री विमर्श’ से जुड़े तमाम विषयों पर केंद्रित रहीं. दोपहर हुई प्रसिद्द फ़्रांसीसी निर्देशक रोबर्ट ब्रेसां की फिल्म ‘मुशेत’ के प्रदर्शन के साथ. फिल्म 60 के दशक में फ्रांस के एक छोटे से गाँव के चौदह साल की लड़की मुशेत की कहानी कहती है. बलात्कार की शिकार मुशेत अपनों के तानों से इतनी त्रस्त होती है कि पीठ सहलाना भी उसे भीतर तक कुरेदने लगता है. जिसके बाद शिकारी के बन्दूक से निकली गोली से छटपटाता हिरन उसके दर्द को इस कदर उभार देता है कि वह खुद को नदी की गोद में समाहित कर देती है. यह फिल्म सिर्फ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के यूरोप की दर्दनाक तस्वीर ही नहीं पेश करती बल्कि एक स्त्री के जीवन पथ में बिछे काँटों से भी रूबरू कराती है. दुनिया की क्लासिक फिल्मों में शुमार ‘मुशेत’ को दर्शकों ने खूब सराहा.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqPBV_2OrPWosq_t5vulFZA-lATsd3LYVP_NNjtwyx67tvao2x42DCN3FrRM5zX0SuQC4dEBAfhyDHik3wNSIZVxcPHgfMM30VbnUv2uX2AoM8Rs7gHLNqld58s8st0DEpvursC0abaJRu/s1600/DSC05086.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqPBV_2OrPWosq_t5vulFZA-lATsd3LYVP_NNjtwyx67tvao2x42DCN3FrRM5zX0SuQC4dEBAfhyDHik3wNSIZVxcPHgfMM30VbnUv2uX2AoM8Rs7gHLNqld58s8st0DEpvursC0abaJRu/s200/DSC05086.JPG" height="150" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;">फिल्म देखते दर्शक </td></tr>
</tbody></table>
इसके बाद दिखाई गई रीना मोहन द्वारा निर्देशित डाक्युमेंट्री ‘स्किन डीप’. यह फिल्म आधुनिक शहरी युवतियों की पहचान से जुड़े सवालों को दर्शकों के सामने रखती है. फिल्म स्त्री की आत्मीय छवि और उसकी स्वयं की पहचान की खोज के लिए होने वाले संघर्षों पर केंद्रित है. जिसमें बड़े करीने से 'स्त्री को सुन्दर दिखना ही चाहिए' वाली यूटोपिया के कड़वे सच से पर्दा उठता है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद परदे पर नुमायाँ हुई युवा निर्देशक नकुल साहनी द्वारा निर्देशित डाक्युमेंट्री ‘इज्ज़त नगरी की असभ्य बेटियां’. जिसने दर्शकों की जबरदस्त वाहवाही बटोरी. खाप पंचायतों का कच्चा चिठ्ठा खोलती यह फिल्म 'ऑनर किलिंग’ जैसे कोढ़ का प्रतिरोध करते परिवारों के जज्बे को सामने लाती है. फिल्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में खाप पंचायतों द्वारा जारी हिटलरी फरमानों का आलोचनात्मक विश्लेषण करती है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सच मायनो में इस आयोजन को कोलॉज बनाया युवा वज्ञानिक शैलेन्द्र सिंह की ‘जैव विविधता और गंगा के पारिस्थितिक चुनौतियाँ’ विषय के रिसर्च ने. जिसमें उन्होंने दर्शकों को पॉवर पॉइंट प्रजेंटेशन और छोटी डाक्युमेंट्री फिल्मों के जरिये गंगा प्रदुषण से जुड़े विभिन्न पहलुओं से रूबरू तो कराया ही गंगा की पूरी जैविक पारिस्थितकी को भी सबके सामने सजीव कर दिया.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अंतिम दिन की शुरुआत संजय मट्टू की कहानियों की प्रस्तुति के साथ हुई. रोचक और दिलचस्प कहानियों की प्रस्तुति का खासतौर से बच्चों ने भरपूर मजा लिया. इस प्रस्तुति में बनारस के आधा दर्जन से अधिक स्कूलों के बच्चे शामिल हुए. कहानियों की प्रस्तुति का खास पक्ष यह था कि सभी कहानियां एकतरफा के बजाये बच्चों से सीधे संवाद करती नज़र आयीं. तकरीबन एक घंटे की प्रस्तुति में संजय मट्टू ने साबित कर दिया कि कैसे अच्छी अदायगी से बच्चों के विचार बदले जा सकते हैं और उनके अंदर मूल्य स्थापित किये जा सकते हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSnhZ2jyEc8HKcJfEzN0dCMzQopmLPYRfQI0-jJQp0-PbTjXT67l7CFd0rWEV3jM7liQP3fgIK-dpZCCW2tKpbHx3MeExEbH0XzXmXj0yUpPznewiHDQu05MN1vlIFsGgxOHGs-kuPFo90/s1600/DSC05092.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSnhZ2jyEc8HKcJfEzN0dCMzQopmLPYRfQI0-jJQp0-PbTjXT67l7CFd0rWEV3jM7liQP3fgIK-dpZCCW2tKpbHx3MeExEbH0XzXmXj0yUpPznewiHDQu05MN1vlIFsGgxOHGs-kuPFo90/s200/DSC05092.JPG" height="150" width="200" /></a></div>
राजन खोसा निर्देशित फिल्म ‘गट्टू’ भी बच्चों को खूब पसंद आई. यह फिल्म उत्तराखंड के रुड़की जिले के नौ साल के बच्चे की कहानी है. जो अपने चाचा की कबाड़ की दुकान में काम करता है. फिल्म गट्टू न्यूयार्क फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में भी नामांकन प्राप्त कर चुकी है. यह फिल्म बालमन के भीतर चलने वाली उठापटक को बखूबी दर्शकों तक पहुंचाती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आखिरी दिन की तीसरी प्रस्तुति गुरविंदर सिंह द्वारा निर्देशित ‘अन्हे घोरे द दान’ रही. यह फिल्म पंजाब की हवेलियों और झूमते सरसों के खेतों वाली बालिवुडिया तस्वीर से अलग जातिवाद के ज़हर से जूझते पंजाब के गावों की तश्वीर से दिलों में सिहरन पैदा कर देती है. छोटे और दलित किसानों की व्यथा को आवाज़ देती है यह फिल्म पंजाबी के उपन्यासकार गुरदयाल सिंह के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है. फिल्म किसान-जीवन की मुश्किलों की गहन पड़ताल करती है.</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
फिल्म महोत्सव का समापन बीजू टोप्पो की फिल्म ‘प्रतिरोध’ के साथ हुई. यह फिल्म रांची के निकट नगड़ी गाँव में पछले दो वर्षों से चल रहे 227 एकड़ कृषि भूमि के अधिग्रहण के विरोध में उठे जन आन्दोलन को सच्चे अर्थों में दर्शाती है. बीजू टोप्पो देश के पहले आदिवासी फिल्मकारों में से एक हैं जिन्होंने लगातार किसान आंदोलनों पर फिल्में बना कर देश के दुसरे हिस्सों के आवाम को एक कड़वे सच का स्वाद चखाया है. </div>
<div style="text-align: justify;">
<b><span style="color: #660000;"><i><br /></i></span></b>
<b><span style="color: #660000;"><i>इसके बाद प्रतिरोध का सिनेमा समाप्त हुआ और पूरी टीम नैनीताल में मिलने के वादे के साथ रुखसत हुई .</i></span></b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>-अमृत कुमार </b></div>
</div>
</div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-6413191100340308272014-06-27T02:46:00.000-07:002014-06-27T02:46:27.261-07:00चला गया वो! जो कहता था; यारी है ईमान, मेरी यार, मेरी ज़िन्दगी...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjD0dDmYekToegiamYP2B_EJBUqrOnujcn7SqPeaYprFTMJdVyAuRYlcAtRhvkJ47-YYahLIHjVkZKjUQ-QkXiUCMHbywiXkMKlU6lJDMU9Y-f87lmjIyHlSbdxI3J3y-SwzieOkm0YcQRC/s1600/pran.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjD0dDmYekToegiamYP2B_EJBUqrOnujcn7SqPeaYprFTMJdVyAuRYlcAtRhvkJ47-YYahLIHjVkZKjUQ-QkXiUCMHbywiXkMKlU6lJDMU9Y-f87lmjIyHlSbdxI3J3y-SwzieOkm0YcQRC/s200/pran.jpg" height="115" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;">अरे बरखुरदार!</td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
कभी अल्फाजों को भी बरखुरदार! सा बना अपना लेने वाले प्राण नहीं रहे। नहीं रहा वह चरित्र अभिनेता जिसने सिनेमा के परदे को डॉयलाग बोलने की तमीज़ और अक़्लमंदी दी। भाषा के परिधान में लिपटी ज़ुबान! खुलते ही कैसे पहचान ली जाती है....यह प्राण की संवाद अदायगी से जाना जा सकता है। प्राण साहब! का गेटअप, मेकअप, चाल-ढाल, उठने-बैठने और चहलकदमी के तौर-तरीके सब लाजवाब थे। नकल नहीं। दुहराव नहीं। बनावटीपन का किनारा या झोल नहीं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उनके मन ने शौक पाला था फोटोग्राफरी का। बने फिल्म के चरित्र अभिनेता। धाकड़ खलनायक। बेजोड़ अदाकार। 1949 में ‘जिद्दी’ और ‘बड़ी बहन’ फिल्मों में उनकी भूमिका खलनायकी की जमी। सराही गई। 1956 में मीना कुमारी के साथ ‘हलाकू’ फिल्म में हलाकू डाकू की भूमिका से छा गए। फिर दिखें प्राण साहब फ़िल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में राका डाकू के रूप में। शम्मी कपूर की लगभग सभी फिल्मों में वे नकारात्मक भूमिका में रहे और लोगों के मन में पैठते चले गये। ‘उपकार’ फिल्म ने उनकी भूमिका का ‘फ्लेवर’ बदल दिया। इस फिल्म में प्राण साहब! ने मलंग बाबा की यादगार और अद्भुत चरित्र-अभिनेता की भूमिका अदा की। 1967 में आई इस फिल्म का गाना पूरे देश में लोकप्रिय रहा जो आज भी बड़े शान से ट्युन होता है-‘कस्में वादें प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या...!’</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiwFUn0bKPr6Hh7nIcD7l9iXxdcaeisEN4LrDZr9t0OT9-sasCHH3ICCD0xsuGMv1jXiNw1xUhboKuCeknEFBzz2bnJIBN40EzCIWcvLcMW5j5kX8GNAFx4VB9p884pkDFrRnSKNNYxfrYU/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiwFUn0bKPr6Hh7nIcD7l9iXxdcaeisEN4LrDZr9t0OT9-sasCHH3ICCD0xsuGMv1jXiNw1xUhboKuCeknEFBzz2bnJIBN40EzCIWcvLcMW5j5kX8GNAFx4VB9p884pkDFrRnSKNNYxfrYU/s1600/images.jpg" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;">अरे साईं! </td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
प्राण साहब! ने अमिताभ बच्चन के साथ ग़जब की जोड़ीदारी निभाई। फिल्म ‘जंजीर’ में, शेरखान के चरित्र को उन्होंने निभाया क्या! मानो जी रहें हों। वे उसमें जब दिल से डूबकर गाते हैं तो फ़िल्मी परदे का सीना चौड़ा हो जाता है- ‘‘यारी है ईमान, मेरी यार, मेरी ज़िन्दगी... अमिताभ बच्चन को प्राण साहब! की और प्राण साहब को अमिताभ की, मानो लत लग गई। 'जंजीर' के बाद ‘डॉन, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘शराबी’....एक के बाद एक बनती गई, फिल्मी परदे पर टंगती गई...और प्राण साहब! सबमें सप्राण अपनी अदाकारी का लाजवाब करतब दिखाते चले गए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
1940 में आई मोहम्द अली की पंजाबी फिल्म ‘यमला जाट’ से अपनी फिल्मी कैरियर शुरू करने वाले प्राण साहब! ने आज जब अंतिम सांस ली है तो उनके फिल्मी यात्रा में शामिल फिल्मों की संख्या करीब चार सौ हो चुकी है। इस घड़ी जब पूरे देश में उन्हें श्रद्धाजंली देने की रवायत चल रही है, मेरा आपको उनकी फिल्मों का नाम गिनाना नागवार गुजर सकता है। अतः मैं यह कहूँ कि प्राण साहब ने ‘छलिया’, ‘काश्मीर की कली’, ‘दो बदन’,:जॉनी मेरा नाम’, ‘गुड्डी’, ‘परिचय’, ‘विक्टोरिया नं. 203’, ‘बाबी’, ‘नौकर बीवी का’, ‘कर्ज’, ‘नसीब’ जैसी सैकड़ों फिल्में बनाई है.......इससे अच्छा है कि आप उनकी फिल्म ‘धर्मा’ का यह गीत गुनगुनाए....‘राज को राज रहने दो.....,<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEizaPyAHxzPVBjifTAkxHDMSpoj5tFveWnWcpEnuyeTlapLlTBKv1UyjMu53Mn-HVZdUB7l2WnhH6btwy7hX1vzRUSw_vAt-U7kCuYUAnuVsrdH2l0oGK3j9LCKwlaZa7zTzx9X6lPA9I-a/s1600/images+(1).jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEizaPyAHxzPVBjifTAkxHDMSpoj5tFveWnWcpEnuyeTlapLlTBKv1UyjMu53Mn-HVZdUB7l2WnhH6btwy7hX1vzRUSw_vAt-U7kCuYUAnuVsrdH2l0oGK3j9LCKwlaZa7zTzx9X6lPA9I-a/s200/images+(1).jpg" height="139" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;">दादा साहब फाल्के सम्मान के घोषणा के बाद प्राण साहब!</td></tr>
</tbody></table>
</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेरी ओर से प्राण कृष्ण सिकन्द को ‘सैल्यूट’ जिसने अपनी अदाकारी से बीते वर्षों में भारतीय सिनेमा की दुनिया में अनगिनत नायकों-महानायकों को शिकस्त दी है....पटखनी खिलायी है...आज वे सभी प्राण साहब! के दुनिया को अलविदा कह जाने पर रो रहे होंगे....बरखुरदार! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>-राजीव रंजन प्रसाद</b></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-6567602844177547782014-06-27T02:42:00.000-07:002014-06-27T02:42:25.799-07:00'प्रतिशोध' नहीं प्रतिरोध का सिनेमा ! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div>
<span style="color: #990000;"><b>बनारस फिल्म सोसायटी / प्रतिरोध का सिनेमा</b></span><br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgc4JrRSnsAv32RU6SWfs2e_VojNP6VSdV942p6ScWV3aFuGgX685gLgVgSBHA8qEWad782ALXl3zXnCg2t0gK0Sg8cecoCZwO4qMSoRMtr-ahVi0Bn-w6JK8dPwHConkpealcHbu8qSP6j/s1600/1505464_10201430968968086_1812023786_n.jpg" imageanchor="1" style="background-color: blue; clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgc4JrRSnsAv32RU6SWfs2e_VojNP6VSdV942p6ScWV3aFuGgX685gLgVgSBHA8qEWad782ALXl3zXnCg2t0gK0Sg8cecoCZwO4qMSoRMtr-ahVi0Bn-w6JK8dPwHConkpealcHbu8qSP6j/s1600/1505464_10201430968968086_1812023786_n.jpg" height="132" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px;">एम गनी</td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
<span style="color: blue;">नेल्सन मंडेला , जैनुल आबेदीन, बलराज साहनी , रेशमा,<br />फारूख शेख और अमरकांत को समर्पित<br />तीसरा बनारस फिल्मोत्सव / दूसरा दिन / 23 फरवरी 2014</span><br />
----------------------------------------------------------</div>
<div>
<span style="color: #990000;">इंटर नेशनल हिन्दू स्कूल , नगवा , वाराणसी </span><br />
--------------------------------------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
तीसरे बनारस फिल्म महोत्सव का दूसरा दिन, सवालों का दिन रहा. रविवार को मौसम तो साफ़ रहा लेकिन महोत्सव में प्रदर्शित हुई फिल्मों ने दर्शकों के मन में जबरदस्त सवाली बादलों को जन्म दिया.<br />
तीसरे बनारस फिल्मोत्सव के दूसरे दिन एंगस गिब्सन और जो मेनेल निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म मंडेला दिखाई गयी. जो नेल्सन मंडेला के जीवन संघर्ष और साउथ अफ्रीका की आजादी को रेखांकित करती है. इस फिल्म को लगभग दो सौ घंटे की वास्तविक वीडियो फुटेज और सौ घंटे की आर्काइव सामग्री के सहयोग से बनाया गया है. कई वैश्विक सम्मान पा चुकी यह दस्तावेजी फिल्म 1997 में सर्वोतम डाक्यूमेंट्री फिल्म की श्रेणी में अकादमी पुरस्कार के लिए भी नामित हो चुकी है. ‘लोकतंत्र के प्रतिक’ नेल्सन मंडेला की पूरी जीवन यात्रा पर आधारित 114 मिनट की यह फिल्म उनके बचपन, शिक्षा, २७ वर्ष तक जेल प्रवास व रंगभेद के संघर्ष को रेखांकित करती है.<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXQPl-7USIPXZSLhtsgf7v7di63-ueu4dP9tDA3zf-skRnpBKsV14o_TPgYN7EoeXz-UN6vqqVskm9mdplOlUDT60O9yiWvM1C1gLDapsYY6DEYX6GPw-TSfVY2snl6TQOklWcIBSpuUqj/s1600/1939959_4135477883299_1379723389_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXQPl-7USIPXZSLhtsgf7v7di63-ueu4dP9tDA3zf-skRnpBKsV14o_TPgYN7EoeXz-UN6vqqVskm9mdplOlUDT60O9yiWvM1C1gLDapsYY6DEYX6GPw-TSfVY2snl6TQOklWcIBSpuUqj/s1600/1939959_4135477883299_1379723389_n.jpg" height="133" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;">दर्शकगण</td></tr>
</tbody></table>
महोत्सव की दूसरी फिल्म सुरभि शर्मा द्वारा निर्देशित ‘बिदेसिया इन बम्बई’ रही. यह फिल्म अपने विशेष रचनात्मकता के जरिये भोजपुरी संस्कृति और ‘शहरीपन की राजनीतिक परिदृश्य’ को एकदम नये तरीके से पर्दे पर उकेरती है. साथ ही फिल्म बम्बई के माहौल की राजनीतिक आलोचना भी करती है. फिल्म इसके लिए ‘बिदेसिया’ समाज के लोगों पर फोकस करते हुए उनके जीवन संघर्ष को नये नजरिये से सेल्युलाइड पर उतारती है.<br />
इसके बाद जिस डाक्यूमेंट्री फिल्म क्लिपिंग ‘मुजफ्फरनगर टेस्टमोनियल’ की सबसे ज्यादा चर्चा थी उसका प्रदर्शन किया गया. इस प्रदर्शन के बाद विशेष तौर पर बनारस आये एम गनी ने दर्शकों से संवाद किया. इस दौरान दर्शकों ने मुजफ्फरनगर दंगो की कलई खोलती इस फिल्म को आधार बना अपने सवालों की झड़ी लगा दी. सवालों के जवाब देने के क्रम में फिल्म के कैमरा परसन एम गनी ने प्रतिरोध की संस्कृति और उससे जुड़े अभियानों पर भी अपना विस्तृत नजरिया रखा.<br />
इस वर्ष के फिल्म महोत्सव में बनारस के युवा फिल्मकारों को भी अपनी प्रतिभा को जनता के बीच प्रदर्शित करने का मौका दिया. प्रयोगधर्मी फिल्मो के सत्र में बनारस के युवा फिल्मकारों की 8 फिल्में प्रदर्शित की गयी. विवेक सिंह की “आखिरी चिठ्ठी”, विक्रम, सौम्य, शैवाल व बोनी की “कागज़ की कश्ती”, अतुर अग्रवाल की “द जर्नी ऑफ़ लाइफ”, मुकेश तिवारी की “दिलीप”, रोहिताश की “खौफ-द टेरर”, हिबा फरहीन, अंजू कुमारी, एलेना मलोवा की “साड़ी वीविंग”, निमित सिंह की “ए वर्ल्ड विदआउट बाउंड्री” एवं पंकज चौधरी की “घरियाल कंजर्वेशन” डाक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई गयी.<br />
फिल्मोत्सव की अंतिम फिल्म ईरानी फिल्मकार बहमान घोबादी की “हाफ मून” रही. बहमान घोबादी ईरानी सिनेमा के नयी धारा के प्रतिनिधि माने जाते हैं. ११४ मिनट की “हाफ मून” में बहमान लालफीताशाही व देहाती संस्कृति के ज़रिये एक बूढ़े व्यक्ति के जीवन संघर्ष को बेहद संवेदनशील तरीके से दिखाते हैं. फिल्म कई जगह ईराक-ईरान को बांटने वाली सीमा रेखा पर भी सवाल उठाती है. पीपुल्स च्वायस अवार्ड सहित दर्जनों इंटरनेशनल पुरस्कारों से नवाजी गयी इस फिल्म में ईरान के नामचीन कलाकारों ने काम किया है.<br />
फिल्मोत्सव का समापन बनारस फिल्म सोसायटी से जुड़े युवा कलाकारों के जनगीतों की प्रस्तुति के द्वारा हुआ. जनगीतों में साहिर लुधियानवी का ‘ये किसका लहू है ये कौन मरा’, गोरख पांडे का ‘समाजवाद का गीत’ व शलभ श्रीराम सिंह का ‘इंकलाबी गीत’ शामिल रहा.<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; text-align: center;"><tbody>
<tr><td><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQPBCQJ-DRwb1l1iLQkgJJhl3aFGS07y1Z8V4MvO72juzohHNSDup45_7nFv-4v4RqR05XutUvilJYZ5ruC8oOQWLYU_Op21CXy67jIhOjj-5W9gHwqTU70PF8MTvZQ-XF5JByw5sDdFb5/s1600/1964849_4135478003302_438663127_n.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQPBCQJ-DRwb1l1iLQkgJJhl3aFGS07y1Z8V4MvO72juzohHNSDup45_7nFv-4v4RqR05XutUvilJYZ5ruC8oOQWLYU_Op21CXy67jIhOjj-5W9gHwqTU70PF8MTvZQ-XF5JByw5sDdFb5/s1600/1964849_4135478003302_438663127_n.jpg" height="133" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px;">आठ युवा फ़िल्मकार जिनकी फ़िल्में प्रदर्शित की गयी </td></tr>
</tbody></table>
समापन के मौके पर गाजीपुर से पोस्टर प्रदर्शनी लेकर आये संभावना कला मंच, इंटरनेशनल हिन्दू स्कूल व फोटो एक्जीबिसन के प्रस्तुतकर्ता को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया. अंतिम में चौथे बनारस फिल्मोत्सव के वादे और सोसायटी के सदस्यों के परिचय से महोत्सव संपन्न हुआ. दूसरे दिन का संचालन दिव्यांशु श्रीवास्तव ने किया.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<b>-अमृत सागर </b></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1250628868198487731.post-47580770156913045632014-06-27T02:36:00.001-07:002014-06-27T02:36:59.527-07:00मुजफ्फरनगर दंगो की कलई खोलती है डाक्यूमेंट्री ‘मुजफ्फरनगर टेस्टमोनियल’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div>
<span style="color: #990000;"><b>बनारस फिल्म सोसायटी / प्रतिरोध का सिनेमा</b></span><br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgc4JrRSnsAv32RU6SWfs2e_VojNP6VSdV942p6ScWV3aFuGgX685gLgVgSBHA8qEWad782ALXl3zXnCg2t0gK0Sg8cecoCZwO4qMSoRMtr-ahVi0Bn-w6JK8dPwHConkpealcHbu8qSP6j/s1600/1505464_10201430968968086_1812023786_n.jpg" imageanchor="1" style="background-color: blue; clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgc4JrRSnsAv32RU6SWfs2e_VojNP6VSdV942p6ScWV3aFuGgX685gLgVgSBHA8qEWad782ALXl3zXnCg2t0gK0Sg8cecoCZwO4qMSoRMtr-ahVi0Bn-w6JK8dPwHConkpealcHbu8qSP6j/s1600/1505464_10201430968968086_1812023786_n.jpg" height="132" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px;">एम गनी</td></tr>
</tbody></table>
<br />
<br />
<span style="color: blue;">नेल्सन मंडेला , जैनुल आबेदीन, बलराज साहनी , रेशमा,<br />फारूख शेख और अमरकांत को समर्पित<br />तीसरा बनारस फिल्मोत्सव / दूसरा दिन / 23 फरवरी 2014</span><br />
----------------------------------------------------------</div>
<div>
<span style="color: #990000;">इंटर नेशनल हिन्दू स्कूल , नगवा , वाराणसी </span><br />
--------------------------------------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br />
तीसरे बनारस फिल्म महोत्सव का दूसरा दिन, सवालों का दिन रहा. रविवार को मौसम तो साफ़ रहा लेकिन महोत्सव में प्रदर्शित हुई फिल्मों ने दर्शकों के मन में जबरदस्त सवाली बादलों को जन्म दिया.<br />
तीसरे बनारस फिल्मोत्सव के दूसरे दिन एंगस गिब्सन और जो मेनेल निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म मंडेला दिखाई गयी. जो नेल्सन मंडेला के जीवन संघर्ष और साउथ अफ्रीका की आजादी को रेखांकित करती है. इस फिल्म को लगभग दो सौ घंटे की वास्तविक वीडियो फुटेज और सौ घंटे की आर्काइव सामग्री के सहयोग से बनाया गया है. कई वैश्विक सम्मान पा चुकी यह दस्तावेजी फिल्म 1997 में सर्वोतम डाक्यूमेंट्री फिल्म की श्रेणी में अकादमी पुरस्कार के लिए भी नामित हो चुकी है. ‘लोकतंत्र के प्रतिक’ नेल्सन मंडेला की पूरी जीवन यात्रा पर आधारित 114 मिनट की यह फिल्म उनके बचपन, शिक्षा, २७ वर्ष तक जेल प्रवास व रंगभेद के संघर्ष को रेखांकित करती है.<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXQPl-7USIPXZSLhtsgf7v7di63-ueu4dP9tDA3zf-skRnpBKsV14o_TPgYN7EoeXz-UN6vqqVskm9mdplOlUDT60O9yiWvM1C1gLDapsYY6DEYX6GPw-TSfVY2snl6TQOklWcIBSpuUqj/s1600/1939959_4135477883299_1379723389_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXQPl-7USIPXZSLhtsgf7v7di63-ueu4dP9tDA3zf-skRnpBKsV14o_TPgYN7EoeXz-UN6vqqVskm9mdplOlUDT60O9yiWvM1C1gLDapsYY6DEYX6GPw-TSfVY2snl6TQOklWcIBSpuUqj/s1600/1939959_4135477883299_1379723389_n.jpg" height="133" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px; text-align: center;">दर्शकगण</td></tr>
</tbody></table>
महोत्सव की दूसरी फिल्म सुरभि शर्मा द्वारा निर्देशित ‘बिदेसिया इन बम्बई’ रही. यह फिल्म अपने विशेष रचनात्मकता के जरिये भोजपुरी संस्कृति और ‘शहरीपन की राजनीतिक परिदृश्य’ को एकदम नये तरीके से पर्दे पर उकेरती है. साथ ही फिल्म बम्बई के माहौल की राजनीतिक आलोचना भी करती है. फिल्म इसके लिए ‘बिदेसिया’ समाज के लोगों पर फोकस करते हुए उनके जीवन संघर्ष को नये नजरिये से सेल्युलाइड पर उतारती है.<br />
इसके बाद जिस डाक्यूमेंट्री फिल्म क्लिपिंग ‘मुजफ्फरनगर टेस्टमोनियल’ की सबसे ज्यादा चर्चा थी उसका प्रदर्शन किया गया. इस प्रदर्शन के बाद विशेष तौर पर बनारस आये एम गनी ने दर्शकों से संवाद किया. इस दौरान दर्शकों ने मुजफ्फरनगर दंगो की कलई खोलती इस फिल्म को आधार बना अपने सवालों की झड़ी लगा दी. सवालों के जवाब देने के क्रम में फिल्म के कैमरा परसन एम गनी ने प्रतिरोध की संस्कृति और उससे जुड़े अभियानों पर भी अपना विस्तृत नजरिया रखा.<br />
इस वर्ष के फिल्म महोत्सव में बनारस के युवा फिल्मकारों को भी अपनी प्रतिभा को जनता के बीच प्रदर्शित करने का मौका दिया. प्रयोगधर्मी फिल्मो के सत्र में बनारस के युवा फिल्मकारों की 8 फिल्में प्रदर्शित की गयी. विवेक सिंह की “आखिरी चिठ्ठी”, विक्रम, सौम्य, शैवाल व बोनी की “कागज़ की कश्ती”, अतुर अग्रवाल की “द जर्नी ऑफ़ लाइफ”, मुकेश तिवारी की “दिलीप”, रोहिताश की “खौफ-द टेरर”, हिबा फरहीन, अंजू कुमारी, एलेना मलोवा की “साड़ी वीविंग”, निमित सिंह की “ए वर्ल्ड विदआउट बाउंड्री” एवं पंकज चौधरी की “घरियाल कंजर्वेशन” डाक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई गयी.<br />
फिल्मोत्सव की अंतिम फिल्म ईरानी फिल्मकार बहमान घोबादी की “हाफ मून” रही. बहमान घोबादी ईरानी सिनेमा के नयी धारा के प्रतिनिधि माने जाते हैं. ११४ मिनट की “हाफ मून” में बहमान लालफीताशाही व देहाती संस्कृति के ज़रिये एक बूढ़े व्यक्ति के जीवन संघर्ष को बेहद संवेदनशील तरीके से दिखाते हैं. फिल्म कई जगह ईराक-ईरान को बांटने वाली सीमा रेखा पर भी सवाल उठाती है. पीपुल्स च्वायस अवार्ड सहित दर्जनों इंटरनेशनल पुरस्कारों से नवाजी गयी इस फिल्म में ईरान के नामचीन कलाकारों ने काम किया है.<br />
फिल्मोत्सव का समापन बनारस फिल्म सोसायटी से जुड़े युवा कलाकारों के जनगीतों की प्रस्तुति के द्वारा हुआ. जनगीतों में साहिर लुधियानवी का ‘ये किसका लहू है ये कौन मरा’, गोरख पांडे का ‘समाजवाद का गीत’ व शलभ श्रीराम सिंह का ‘इंकलाबी गीत’ शामिल रहा.<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; text-align: center;"><tbody>
<tr><td><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQPBCQJ-DRwb1l1iLQkgJJhl3aFGS07y1Z8V4MvO72juzohHNSDup45_7nFv-4v4RqR05XutUvilJYZ5ruC8oOQWLYU_Op21CXy67jIhOjj-5W9gHwqTU70PF8MTvZQ-XF5JByw5sDdFb5/s1600/1964849_4135478003302_438663127_n.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQPBCQJ-DRwb1l1iLQkgJJhl3aFGS07y1Z8V4MvO72juzohHNSDup45_7nFv-4v4RqR05XutUvilJYZ5ruC8oOQWLYU_Op21CXy67jIhOjj-5W9gHwqTU70PF8MTvZQ-XF5JByw5sDdFb5/s1600/1964849_4135478003302_438663127_n.jpg" height="133" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 12.727272033691406px;">आठ युवा फ़िल्मकार जिनकी फ़िल्में प्रदर्शित की गयी </td></tr>
</tbody></table>
समापन के मौके पर गाजीपुर से पोस्टर प्रदर्शनी लेकर आये संभावना कला मंच, इंटरनेशनल हिन्दू स्कूल व फोटो एक्जीबिसन के प्रस्तुतकर्ता को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया. अंतिम में चौथे बनारस फिल्मोत्सव के वादे और सोसायटी के सदस्यों के परिचय से महोत्सव संपन्न हुआ. दूसरे दिन का संचालन दिव्यांशु श्रीवास्तव ने किया.<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
</div>
<div style="text-align: justify;">
<b>-अमृत सागर </b></div>
</div>
अमृत सागर http://www.blogger.com/profile/13932153079583495399noreply@blogger.com0