मंगलवार, 1 जुलाई 2014

बलराज साहनी: मानवीय संघर्ष और संवेदनाओं का चितेरा

-दीवानसिंह बजेली
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बलराज साहनी 
एक ऐसे अभिनेता के रूप में, जो व्यावसायिक फिल्मों से जुड़ा होने के बावजूद अपनी प्रतिबद्धता में अटल रहा बलराज साहनी की तुलना हॉलिवुड और ब्रितानवी व्यवसायिक सिनेमा के चार्ली चेपलिन, वेनेसा रोडग्रेव और राबर्ट रेडफोर्ड जैसे अभिनेताओं से की जा सकती है। हिंदी फिल्मों को उन्होंने यथार्थवादी अभिनय की एक ऐसी शैली दी जो विशिष्ट है।


यह सुखद संयोग है कि भारतीय सिनेमा और अभिनेता बलराज सहानी का जन्म एक ही माह और एक ही वर्ष हुआ। अपने आप में यह विडंबना है कि आज जब भारतीय सिनेमा इतना विशाल रूप धारण कर चुका है और अपनी यात्रा के सौ वर्ष मना रहा है वह और उसके प्रशंसक उस महान अभिनेता को भूल गए हैं जिसने अपने अभिनय से भारत की शोषित और दमित जनता के दुख-दर्द को सिनेमा के पर्दे पर साकार किया। इससे बड़ी दुख और शर्म की बात क्या हो सकती है कि दिल्ली में 25 से 30 अप्रैल तक चलने वाले सरकारी स्तर पर हो रहे समारोह में बलराज सहानी की न तो कोई फिल्म दिखलाई गई और न ही उन्हें याद किया गया। क्या यह ऐसा अवसर नहीं था जब यथार्थवादीवादी परंपरा की हिंदी व्यावसायिक सिनेमा की सबसे बड़ी देन दो बीघा जमीन को दिखाया जान चाहिए था?
बलराज साहनी का भारतीय फिल्मों के इतिहास में अपनी मानवीय संवेदनाओं और किसान-मजदूर के हमदर्द के रूप में एक अभिनेता के तौर पर अद्वितीय स्थान है। कलाकार के रूप में अपनी उपलब्धि के चरम पर पहुंचने के बवजूद न तो वह अपनी जड़ों को भूले और न ही भारत के संघर्षरत आम आदमी को। उनका जीवन एक ऐसे कलाकार का रहा जिसने समाज के प्रति अपने दायित्व का सच्चाई से निर्वहन किया। जनता के कठोर जीवन की वास्तविकता को अपनी कला में आत्मसात करने के लिए उन्होंने उनके संघर्षमय जीवन से तादात्म्य स्थापित किया। यही कारण है कि उनके चरित्र जैसे शंभू महतो (दो बीघा जमीन), पोस्ट ऑफिस का क्लर्क (गर्म कोट), एक मुस्लिम व्यापारी (गर्म हवा) व पठान (काबुलीवाला) चिरस्मरणीय हैं। वह ऐसे कलाकार थे जो जीवन और कला के पारस्परिक अंतर्संबंधों के अंतद्र्वंद्वों को कलात्मक स्वरूप देने के लिए कटिबद्ध रहे और वास्तविकता की सच्चाई को व उसके आंतरिक अंतद्र्वंद्वों को निरंतर प्रतिपादित करते रहे।
बलराज साहनी का जन्म 1 मई, 1913 को रावलपिंडी में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है—उनका नाम वास्तविक नाम युधिष्ठिर था। उनके पिता एक कर्मठ व्यक्ति थे, क्लर्क की नौकरी छोड़कर एक अच्छे जीवन की तलाश में व्यापारी बन गए और समाज में एक संपन्न व आर्य समाज के अनन्य अनुयायी के रूप में जाने जाते थे। उनकी दो बहनें व एक भाई (लेखक व कलाकार भीष्म साहनी) थे। पढ़ाई में वह प्रखर थे।
ज्यों-ज्यों वह बड़े होते गए और उच्च शिक्षा प्राप्त करते गए अपने पारिवारिक पुरातनपंथी विचारों के विरोधी बनते गए। उनके विचारों में उस समय एक नया मोड़ आया जब उन्होंने रावी नदी के किनारे इंडियन नेशनल कांगे्रस के 1929 के ऐतिहासिक अधिवेशन को देखा। इस अधिवेशन में जवाहरललाल नेहरू ने पूर्ण आजादी प्राप्त करने की घोषणा की थी।
अगली घटना जिसने युवा बलराज को गहरे प्रभावित किया वह थी—ब्रिटिश सरकार द्वारा भगत सिंह व उनके कॉमरेडों को फांसी देने की। इस जघन्य व अमानवीय अपराध के प्रति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध देशव्यापी आक्रोश की लहर फैली। बलराज पर इस लहर का गहरा असर पड़ा। कॉलेज के दिनों से ही बलराज का रुझान साहित्य व नाटकों की ओर बढ़ता गया। बलराज के जीवन दर्शन में, उनके प्रगतिशील चिंतन में व उनकी शोषित जनता के संघर्ष के प्रति आस्था में एक क्रांतिकारी परिवर्तन तब आया जब वह बीबीसी (रेडियो) में उद्घोषक के कार्यकाल की समाप्ति पर मुंबई आए और उन्होंने इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोशियेशन (इप्टा) में अपनी पत्नी दमयंती के साथ नाटकों में काम करना शुरू कर दिया। इसी के साथ उनके विचारों पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद का असर बढ़ता गया।
मुंबई इप्टा में प्रवेश करते ही उनका संपर्क ख्वाजा अब्बास से हुआ। उस समय अब्बास साहब के नाटक जुबेदा की रीडिंग चल रही थी और इसका निर्देशन स्वयं उन्होंने करना था। हालांकि उस समय उन दोनों का विशेष परिचय नहीं था। बलराज ने लंदन में उनकी कुछ कहानियां अवश्य पढ़ी थी। अचानक अब्बास ने घोषणा की :
”दोस्तो, मुझे खुशी है कि आज बलराज साहनी हमारे बीच में है। मैं इस नाटक को उन्हें इस आशा के साथ सौंपता हूं कि वह इसका हमारे लिए निर्देशन करेंगे।”
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बलराज ने जुबेदा का निर्देशन बड़े जोश व सफलता के साथ किया। इस नाटक की प्रस्तुति के साथ ही दोनों के बीच गहरी निकटता बन गई। वास्तव में यह नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ जो एक मुस्लिम लड़की व उसके परिवार के निजी संघर्ष को बृहद जन संघर्ष के परिपे्रक्ष्य में प्रतिपादित करता है। अब्बास ने धरती के लाल फिल्म में बलराज साहनी को मुख्य भूमिका में रखा और साथ ही उनकी पत्नी दमयंती ने भी इस फिल्म में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बलराज ने इप्टा के कई नाटकों में काम किया जिनमें महत्त्वपूर्ण है—इंसपेक्टर जनरल।

दुर्भाग्यवश दमयंती की 28 वर्ष की आयु में अचानक मृत्यु हो गई और वह अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गईं। बलराज पर जैसे बज्रपात हो गया। पर धीरे-धीरे उन्होंने अपने नैराश्य, अकेलेपन व असाध्य दुख का इप्टा की गतिविधियों व रचनात्मक कार्यों में लग कर सामना किया।
बलराज को बॉलीवुड में अपनी जगह बनाने के लिए विकट संघर्ष करना पड़ा। एक अभिनेता के रूप में वह अपनी कला में उच्च स्तर प्राप्त करना चाहते थे। उनकी शैली यथार्थवाद पर आधारित थी। जबकि बॉलीवुड में लगातार मनोरंज और रोमांस का बोलबाला होता जा रहा था। अंतत: वह स्वयं को बॉलीवुड में एक महान कलाकार के रूप में स्थापित करने में सफल हो पाए। उन्होंने 135 फिल्मों में अभिनय किया—धरती के लाल, दो बीघा जमीन, गर्म कोट व गर्म हवा भारतीय सिने जगत की कालजयी कृतियां हैं। इन फिल्मों में बलराज अपने चरित्रों के माध्यम से गहनता, सजीवता, जीवंतता व संवेनशीलता का अद्वितीय सम्मिश्रण कर दर्शकों के हृदयों में अमिट छाप छोड़ते हैं। ये चरित्र हमारे समाज के प्रतिनिधि व परिचित हैं जिनसे दर्शक एक सहज तादात्म्य स्थापित कर लेता है। यथार्थवाद और संवेनशीलता उनकी कला की शक्ति है। उन्होंने सीमा (1955) व सोने की चिडिय़ा (1958) में चिरस्मरणीय चरित्रों का किरदार निभाया है। ये चरित्र कलाकार के नैतिक, सामाजिक व राजनीतिक चेतना व प्रतिबद्धता के कारण ही प्राणवान बन गए।
धरती के लाल जहां एक ओर बलराज के मानवीय दृष्टिकोण व उनकी मानवी आजादी के प्रति गहन आस्था की द्योतक है, दूसरी ओर इस फिल्म ने एक नई प्रवृत्ति का सूत्रपात किया जिसका विकास व अभिवृद्धि विमल राय व सत्यजीत राय ने किया और भारतीय सिनेमा को विश्व सिनेमा के इतिहास में एक सम्मानजनक स्थान दिलवाया।
धरती के लाल (1946) अब्बास का निर्देशन के रूप में पहला प्रयास था। बिजोन भट्टाचार्य के नाटक नवना व कृष्णचंदर की कहानी अन्नदाता पर आधारित इस फिल्म की कहानी अब्बास व बिजोन भट्टाचार्य ने लिखी। इसके गीत लिखे सरदार जाफरी और पे्रम धवन ने। यह पहली भारतीय फिल्म है जिसे सोवियत यूनियन में व्यापक रूप से 1949 में वितरण किया गया। यह फिल्म 1943 के बंगाल के अकाल पर एक कठोर व्यंग्य है। और साथ ही अकाल पीडि़त मानवों का हा-हाकार व अमानवीयकरण का सजीव दस्तावेज के रूप में मील के पत्थर के रूप में हमेशा याद की जाएगी।
'धरती के लाल' फिल्म का एक दृश्य 
दो बीघा जमीन (1953) जिसे विमल राय ने निर्देशित किया। भारतीय सिने इतिहास में एक महान क्लासिकल फिल्म के रूप में सदैव याद की जाएगी। इस फिल्म के नायक के रूप में बलराज की अभिनय कला उच्चतम शिखर तक पहुंची। इस चरित्र का गहन यथार्थ चित्रण करने के लिए बलराज ने मुंबई में जोगेश्वरी में रहने वाले उत्तर प्रदेश के मेहनतकश लोग जो दूध बेचने का कार्य करते थे के जीवनशैली का गहराई से अध्ययन किया। इस फिल्म का जो भाग कोलकाता के रिक्शे चालकों के जीवन चित्रण से संबंधित था बलराज ने स्वयं कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा चलाया। इस अभ्यास के दौरान एक रिक्शा चालक बलराज के पास पहुंचा और पूछा, ”बाबू! यहां क्या हो रहा है?” बलराज ने उसे दो बीघा जमीन की कहानी सुनाई। उसकी आंखों में आंसू आ गए और बोला, ”यह मेरी कहानी है।” उसकी आंखों से अश्रुधार बहने लगी। बिहार में उसके पास दो बीघा जमीन थी जो उसने 15 साल पहले जमींदार के पास गिरवी रखी थी और उस जमीन को जमींदार से छुड़ाने के लिए वह कोलकाता में दिन-रात रिक्शा चला रहा है। और उसका शरीर क्राशकाय हो गया था। पर जमीन को जमींदार के कब्जे से छुड़ाने की आशा बहुत कम थी। उस रिक्शा चालक की दारुण-कथा को सुनकर बलराज भावतिरेक में डूब गए और मन ही मन कहने लगे, ”मुझसे भाग्यवान व्यक्ति कौन होगा, जो विश्व के एक लाचार व निस्सहाय व्यक्ति की कहानी सुना रहा है… मुझे पूर्ण शक्ति से अपना कर्तव्य करना चाहिए। तब मैंने इस अधेड़ रिक्शा चालक की अंतर्रात्मा को आत्मसात किया और अभिनय की कला को भूल गया… और अंतत: अभिनय के बुनियादी सिद्धांत किसी पुस्तक से नहीं मिले पर जीवन से।”
लगभग दो दशाब्दी बाद एम.एस. सत्थ्यू द्वारा निर्देशित फिल्म गर्म हवा जहां उनकी अभिनय कला की महानता का एक और उदाहरण है, वहीं यह फिल्म एक विश्व क्लासिक के रूप में बार-बार प्रदर्शित की जाती है। इस फिल्म का केंद्रीय चरित्र लखनऊ का एक मुस्लिम व्यापारी है जो भारत विभाजन की त्रासदी का शिकार है और घोर आंतरिक द्वंद्व से जूझ रहा है। उसके अधिकांश रिस्तेदार पाकिस्तान चले गए हैं।
'गर्म हवा' फिल्म का एक दृश्य 
इस फिल्म में एक अत्यंत हृदयग्राही दृश्य है। मुस्लिम व्यापारी की लड़की आत्महत्या करती है। दिल्ली के एक रंगकर्मी जिसने इस फिल्म के प्रोडक्शन में काम किया, यह दृश्य कई बार शूट किया। यह दृश्य कला व जीवन के अंतर्संबंधों की जटिलता को दिखाता है। बलराज की प्रिय बेटी शबनम ने आत्महत्या का प्रयास किया और बाद में मानसिक बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु से बलराज टूट गए। यहां फिल्म में बलराज का चरित्र अपनी बेटी, जिसने अपने हाथ की नाड़ी काटकर आत्महत्या की, के मृत्यु शरीर को देख रहा है। कला व जीवन के इस अद्वितीय अंतर्संबंधों ने एक ऐसे दारुण दृश्य की संरचना की जो अविस्मरणीय है।
बलराज एक मात्र कलाकार ही नहीं थे, वे लेखक भी थे। वे कहानी, जिसे उनके भाई भीष्म साहनी संपादन करते थे, लिखते थे। इप्टा के कलाकार होने के नाते वे जन संघर्षों में शामिल होते थे। इसी कारण आसिफ की फिल्म हलचल की शूटिंग के समय उन्हें गिरफ्तार किया गया और आसिफ ने कोर्ट से विशेष आज्ञा लेकर अपनी शूटिंग पूरी करवाई। इस दौरान बलराज पुलिस एस्कोर्ट में रहे।
आज जब हम उनकी 100वीं जन्मतिथि मना रहे हैं, इस अद्वितीय कलाकार, जो कलाकार से पहले एक इंसान था, संघर्षरत जनता का साथी रहा और मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत था, हम उनका क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं।
साभार: समयांतर

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