शुक्रवार, 27 जून 2014

एक बहस है, प्रतिरोध का सिनेमा!

दूसरा बनारस फिल्म महोत्सव, 1-3 मार्च, 2013 

मुशेत की स्किन डीप में माटी के लाल संग....इज्जत नगर की असभ्य बेटियां ......पूछो न ! बस किस्से और किस्से .....गट्टू..... अन्हे घोरे दा दान....... ..आखिर!... यह कठपुतली कौन नचावे ...बस!...अब होगा ..प्रतिरोध!!!!

अरे कुछ ज्यादा ही फ़िल्मी हो गया क्या ? पर आप लोगों को तो ऐसे ही डॉयलॉग पसंद आते हैं....जिन फिल्मों में इन्टरटेनमेंट, इन्टरटेनमेंट, इन्टरटेनमेंट, इन्टरटेनमेंट नहीं होता आप उसे नकार देते हैं ….  
खैर! 
आइये, अब बात करते हैं 'प्रतिरोध के सिनेमा' की.....जहाँ यह सिनेमा केवल मस्ती और इन्टरटेनमेंट का एक हिस्सा भर नहीं होता बल्कि सोच बदलने का एक माध्यम बन जाता है. मैं दावे से कह सकता हूँ 1 से 3 मार्च तक बनारस के एक गुमनाम सी वाटिका में संपन्न हुआ 'प्रतिरोध का सिनेमा : दूसरा बनारस फिल्म महोत्सव' का मंचन किसी मायने में भी रामायण के अशोक वाटिका में हुए सीता और हनुमान के प्रसंग से कमतर नहीं रहा. इस की तसदीक खुद वक्त करेगा. क्योंकि 'प्रतिरोध का सिनेमा' जो आग का अंकुर आवाम के दिलो में बो रहा है वो एक न एक दिन वटवृक्ष बनकर इस धसकती जमीं को अपनी जड़ों के आगोश में ले लेगा. तभी सही मायनो में प्रतिरोध की खेती शुरू होगी …… 

आखिर क्या है ये 'प्रतिरोध का सिनेमा'? 

एक ऐसा मंच जहाँ फिल्म दिखाने के नाम पर हाशिये के समाज की बात होती है! सामाजिक समता की बात होती है ...और इससे बढ़कर साम्राज्यवादी शक्तियों के जड़ों को खोखला करने की कसमें खायी जाती हैं ...उस सच से सीधे रूबरू होकर जो साम्राज्यवादी शक्तियां पूंजीवाद के सहारे सूचना की राजनीति और विचारधारा के  जरिये कर रहीं हैं. 
एक बात और... सिनेमा का नाम आते ही आपके आँखों पे जो ग्लैमर का रंगीन चश्मा चढ़ जाता है ये 'प्रतिरोध का सिनेमा' उस चश्में को निकाल फेंक ..हमारे इर्द-गिर्द की बदसूरत सच्चाई को नंगी आँखों से दिखा कर सिसकियाँ और मुठियाँ भींचने को मजबूर कर देती है.

शायद तभी 'प्रतिरोध का सिनेमा' को साकार रूप देने में अपनी जी-जान लगा देने वालों में से एक 'द ग्रुप'-जन संस्कृति मंच के संयोजक संजय जोशी कहते हैं कि हम आपको 'हिलाने आये है! क्योंकि हम जो दिखाते हैं वो एक बहस है!'    
तभी तो पिछले आठ सालों में हिंदीपट्टी के गोरखपुर शहर से उठा डाक्युमेंट्री फिल्मों को देखने और दिखाने का यह आन्दोलन आज एक दर्जन से अधिक प्रमुख शहरों में अपनी सारी विसंगतियों के बाद भी फल-फूल रहा है. और इस संकल्प के साथ कि हम इस आयोजन को पूंजीवाद के समर्थन से नहीं करेंगे, माने नहीं करेंगे.


आइये जानते हैं क्या-क्या हुआ इस आयोजन में....

बनारस फिल्म सोसाइटी तथा ‘द ग्रुप’ जन संस्कृति मंच के संयुक्त तत्वाधान में जब बनारसी यूथ अस्सी घाट के अल्हड़ माहौल में ‘प्रतिरोध का सिनेमा' छोटा नागपुर वाटिका में देखने पहुंची तो उनकी आँखों की पुतलियाँ फैलनी ही थीं. उद्घाटन सत्र में जहाँ फिल्मकार संजय काक ने 'प्रतिरोध का सिनेमा' को  सिर्फ मन बहलाने का माध्यम नहीं बल्कि सोच बदलने का एक माध्यम करार दिया. वहीं, उन्होंने कहा कि कला के रसिक चुटकी में पैदा नहीं होते वे तैयार किये जाते हैं. दिल्ली जैसे शहर में कड़ी मेहनत के बाद हम डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए दर्शक वर्ग तैयार कर पाए हैं. लगातार होने वाले ऐसे आयोजन समाज में एक स्थान बना रहे हैं और जिसके लिए कई फिल्मकार विश्वनीयता के साथ निरंतर काम कर रहें हैं. साथ ही संजय जोशी ने कहा कि यह आम जन का फिल्मोत्सव है जिसे हमने बहुत खास तरीके से तैयार किया है. जिसका सबसे मजबूत स्तम्भ आज का यूथ बनता जा रहा है. 

इस आयोजन में एक खास और नई बात यह जुड़ गई कि 'द ग्रुप' ने अपने बैनर तले छोटी पर मारक कंटेंट को किताबों का रूप देने की शुरुआत कर दी. रामजी तिवारी की किताब ‘ऑस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावे’ के जरिये. 
जिसमें बकायदे यह बताने की कोशिश की गई है कि पूरे विश्व में फिल्मों की सबसे बड़ी और  ग्लैमर वाली 'ऑस्कर की खिचड़ी' पकती कैसे है?   साथ ही इस फिल्मोत्सव में  ‘सम्भावना कला मंच, से जुड़े  बी.एच.यू. और विद्यापीठ के छात्र- छात्राओं की  चित्रकला और फोटोग्राफ भी प्रदर्शित किये गये. यानि 'प्रतिरोध का सिनेमा' पूरे कोलॉज में इन्द्रधनुषी रंगों की छटां खुद में समेटे रहा .
संजय काक 

पहला दिन संजय काक और उनकी फिल्म ‘माटी के लाल’ के नाम रहा. १२० मिनट की इस फिल्म ने अपने देखने वालों को इस कदर मजबूर कर दिया कि वो इस फिल्म को देखने के बाद  'भारत और इन्डिया' के बीच की बहस को नये सिरे से शुरू कर पायें. यही कारण था कि संजय काक देर शाम तक लोगों के सवालों से रूबरू होते रहे.
दूसरे बनारस फिल्म महोत्सव के दूसरे दिन की फिल्में ‘स्त्री विमर्श’ से जुड़े तमाम विषयों पर केंद्रित रहीं. दोपहर हुई प्रसिद्द फ़्रांसीसी निर्देशक रोबर्ट ब्रेसां की फिल्म ‘मुशेत’ के प्रदर्शन के साथ. फिल्म 60  के दशक में फ्रांस के एक छोटे से गाँव के चौदह साल की लड़की मुशेत की कहानी कहती है. बलात्कार की शिकार मुशेत अपनों के तानों से इतनी त्रस्त होती है कि पीठ सहलाना भी उसे भीतर तक कुरेदने लगता है. जिसके बाद शिकारी के बन्दूक से निकली गोली से छटपटाता हिरन उसके दर्द को इस कदर उभार देता है कि वह खुद को नदी की गोद में समाहित कर देती है. यह फिल्म सिर्फ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के यूरोप की दर्दनाक तस्वीर ही नहीं पेश करती बल्कि एक स्त्री के जीवन पथ में बिछे काँटों से भी रूबरू कराती है. दुनिया की क्लासिक फिल्मों में शुमार ‘मुशेत’ को दर्शकों ने खूब सराहा.

फिल्म देखते दर्शक 
इसके बाद दिखाई गई रीना मोहन द्वारा निर्देशित डाक्युमेंट्री ‘स्किन डीप’. यह फिल्म आधुनिक शहरी युवतियों की पहचान से जुड़े सवालों को दर्शकों के सामने रखती है. फिल्म स्त्री की आत्मीय छवि और उसकी स्वयं की पहचान की खोज के लिए होने वाले संघर्षों पर केंद्रित है. जिसमें बड़े करीने से 'स्त्री को सुन्दर दिखना ही चाहिए' वाली यूटोपिया के कड़वे सच से पर्दा उठता है. 

इसके बाद परदे पर नुमायाँ हुई युवा निर्देशक नकुल साहनी द्वारा निर्देशित डाक्युमेंट्री ‘इज्ज़त नगरी की असभ्य बेटियां’. जिसने दर्शकों की जबरदस्त वाहवाही बटोरी.  खाप पंचायतों का कच्चा चिठ्ठा खोलती यह फिल्म  'ऑनर किलिंग’  जैसे  कोढ़ का प्रतिरोध करते परिवारों के जज्बे को सामने लाती है. फिल्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में खाप पंचायतों द्वारा जारी हिटलरी फरमानों का आलोचनात्मक विश्लेषण करती है. 

सच मायनो में इस आयोजन को कोलॉज बनाया युवा वज्ञानिक शैलेन्द्र सिंह की ‘जैव विविधता और गंगा के पारिस्थितिक चुनौतियाँ’ विषय के रिसर्च ने.  जिसमें उन्होंने दर्शकों को पॉवर पॉइंट प्रजेंटेशन और छोटी डाक्युमेंट्री फिल्मों के जरिये गंगा प्रदुषण से जुड़े विभिन्न पहलुओं से रूबरू तो कराया ही गंगा की पूरी जैविक पारिस्थितकी को भी सबके सामने सजीव कर दिया.

अंतिम दिन की शुरुआत संजय मट्टू की कहानियों की प्रस्तुति के साथ हुई. रोचक और दिलचस्प कहानियों की प्रस्तुति का खासतौर से बच्चों ने भरपूर मजा लिया. इस प्रस्तुति में बनारस के आधा दर्जन से अधिक स्कूलों के बच्चे शामिल हुए. कहानियों की प्रस्तुति का खास पक्ष यह था कि सभी कहानियां एकतरफा के बजाये बच्चों से सीधे संवाद करती नज़र आयीं. तकरीबन एक घंटे की प्रस्तुति में संजय मट्टू ने साबित कर दिया कि कैसे अच्छी अदायगी से बच्चों के विचार बदले जा सकते हैं और उनके अंदर मूल्य स्थापित किये जा सकते हैं. 

राजन खोसा निर्देशित फिल्म ‘गट्टू’ भी बच्चों को खूब पसंद आई. यह फिल्म उत्तराखंड के रुड़की जिले के नौ साल के बच्चे की कहानी है. जो अपने चाचा की कबाड़ की दुकान में काम करता है.   फिल्म गट्टू न्यूयार्क फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में भी नामांकन प्राप्त कर चुकी है. यह फिल्म बालमन के भीतर चलने वाली उठापटक को बखूबी दर्शकों तक पहुंचाती है.

आखिरी दिन की तीसरी प्रस्तुति गुरविंदर सिंह द्वारा निर्देशित ‘अन्हे घोरे द दान’ रही. यह फिल्म पंजाब की हवेलियों और झूमते सरसों के खेतों वाली बालिवुडिया तस्वीर से अलग जातिवाद के ज़हर से जूझते पंजाब के गावों की तश्वीर से दिलों में सिहरन पैदा कर देती है. छोटे और दलित किसानों की व्यथा को आवाज़ देती है यह फिल्म पंजाबी के उपन्यासकार गुरदयाल सिंह के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है. फिल्म किसान-जीवन की मुश्किलों की गहन पड़ताल करती है.

फिल्म महोत्सव का समापन बीजू टोप्पो की फिल्म ‘प्रतिरोध’ के साथ हुई. यह फिल्म रांची के निकट नगड़ी गाँव में पछले दो वर्षों से चल रहे 227  एकड़ कृषि भूमि के अधिग्रहण के विरोध में उठे जन आन्दोलन को सच्चे अर्थों में दर्शाती है. बीजू टोप्पो देश के पहले आदिवासी फिल्मकारों में से एक हैं जिन्होंने लगातार किसान आंदोलनों पर फिल्में बना कर देश के दुसरे हिस्सों के आवाम को एक कड़वे सच का स्वाद चखाया है. 

इसके बाद प्रतिरोध का सिनेमा समाप्त हुआ और पूरी टीम नैनीताल में मिलने के वादे के साथ रुखसत हुई .

-अमृत कुमार 

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