शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

हैदर: चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले!

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो

कहीं तो बह्र-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

हैदर के अब्बा डाक्साहब जब-जब फैज के ज़िंदाँ-नामा को गुनगुनाते हैं फिल्म हैदर देखने वालों की सांसे 'झेलम' हो जाती हैं! जो आज सिर्फ और सिर्फ सुर्ख धसकती 'लाल' रेत से अटी पड़ी है. जिससे निजात की बेकार कोशिश में नायिका अर्शी(श्रद्धा कपूर) को अलीगढ़ से लौटे नायक से कहना पड़ता है कि 'ये(फौजी) जानते ही नहीं कि तुम मिलटेंट नहीं पोएट' हो!
शायद! तभी 'हैदर' फिल्म से ज्यादा एक कविता सी लगती है! जो हैदर की जुबान पर पहले हाफ तक सिर्फ चुप्पी की हिजाब ओढ़े मिलती है तो दुसरे हाफ में अचानक से चल जाने वाली क्लास्निकोव की गोली!

जैसे उस आवाज को सुनकर उसकी अम्मी जान गजाला(तब्बू) डाक्साहब से पूछ रही हों कि 'किस तरफ हैं आप'? जबकि इस बात का जवाब दोनों ही जानते थे कि 'जब दो हाथी लड़ते हैं तो सबसे ज्यादा घास ही मसली जाती है.' लेकिन होता सबकुछ वैसा ही है! जिसका डर फिल्म के शुरू होने के पहले ही आपके ज़ेहन में पेवस्त हो चुका होता है! यानी शेक्सपियर का 'हेमलेट'...
अपने चचा खुर्रम(मेनन) के राजनीतिक गिलाफों के कारण 'ब्रिटिश भारत के क्रांतिकारी उर्दू कवियों' पर शोध करने वाला एक पोएट, मिलटेंट बन जाता है! क्योंकि दोनों ही कश्मीर में आज 'ऊपर खुदा है और नीचे फौज!' बस इस हाड़ कंपाती, जहरीली हवाओं को कोई थामता है तो वह है अर्शी और हैदर का इश्क जो पूरी फिल्म में सफ़ेद बर्फ के साथ देते हुए शुरूआत से अंत तक सरमायेदार रहती है.

 
फिल्म विशाल भारद्वाज के नजरिये से दशकों से मसली जाती कश्मीरी आवाम की एक दहकती मगर अधूरी कहानी कहती है! जो 'मैं हूं कि मैं नहीं' के सवाल में लगातार उलझती जा रही है! और गैर कश्मीरी दर्शक फिल्म के एक दृश्य पर खुद सवाल होने को मजबूर हो जाते है! जब फिल्म में रूह्तास(इरफान) अपने घर के बाहर ठिठके बाशिंदे को उसके ही घर में तलाशी लेकर घुसाता हैं, यह कहते हुए कि 'कश्मीर में लोग तलाशी के इतने आदी हो गए हैं कि अपने घर में भी बिना तलाशी, घुसने में डरते हैं.' और हैरत से मुंह खुला-खुला रहा जाता है जब एक मां अपने बेटे को पढने भेजने के लिए अपने सर पर बंदूक रख लेती है. ओह! खौफ और कश्मीर! 
बशारत पीर और विशाल का साथ एक ऐसी पटकथा को जन्म दे गया है जिसको देखने के बाद आप घंटों तक कुछ-कुछ सोचते रहेंगे पर निश्चित ही कश्मीर की तरह. आपके हाथ कोई ओर-छोर नहीं आता! क्योंकि आज दर्शन और कश्मीर के दरीचों से यथार्थ और मौत वैसे ही झांकती है! जैसे जन्नत की वादियों में 'हाफ विडोज' जो तब तक 'पूरी' नहीं होती जब तक अपने शौहर या उसकी बॉडी को नहीं देख लेती! जबकि वादी में गायब हुए हजारों कश्मीरियों के लिए यह लगभग नामुमकिन है!

शायद तभी यह फिल्म वादियों को एक ऐसे नजरिये से देखने का मौका देती है जिसे सीधी आँखों से नहीं देखा
जा सकता! क्योंकि पूरा 'कश्मीर एक कैदखाना हो चूका है! पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए भारत सरकार के प्रायोजित चरमपंथ को भी फ़िल्म ने बड़े बेबाक तरीके से उठाया है. ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में सलमान के प्रशंसक दोनो 'सलमांस' अपनी असल भूमिका में पूरी तरह एक सामान्य असलहों की तरह क्रूर होते हैं. जो शुरू में थोडा हास्य पैदा करते हैं पर असल में वह मुखबीर होते हैं. ठीक वैसा ही एक और प्रयोग फिल्म के विमर्श को एक नई ऊंचाई देता है!  अफ्सपा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) की तर्ज पर गढ़ा गया 'चुत्जपा' जो एक दुस्साहसी विरोध दर्ज कराने जैसा होता है! सरकारी एक्ट पर ऐसा तंज शायद ही किसी बॉलिवुड की फिल्म में दिखा हो!

खैर! कुछ दृश्यों को छोड़कर वादी की सिनेमेटोग्राफी भी फिल्म के संगीत की तर्ज पर अचम्भित करती है. थियेटर के तर्ज पर रचा गया 'बिस्मिल' गाना आपको अपने नृत्य शैली और मेटाफर से एक सर्द एहसास से भर देता है. तो वहीं 'झेलम', 'खुल कभी तो' और 'दो जहाँ' अपने बोलों के साथ अपने संगीत से निरुत्तर कर देते हैं.

शेक्सपियर के हेमलेट के लिए बस इतना ही कि अगर भारत में यह कहीं भी उकेरी जाने की हक़दार है तो वह
निश्चित ही कश्मीर है! सिर्फ कश्मीर!

जिसके दरीचों में फैज की लाइने सर्द हवाओं सी दाखिल होती हैं_____ और सनसनाती हैं!


_हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब

गिरह में लेके गिरेबाँ का तार तार चले___चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले!


- अमृत सागर 

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