गुरुवार, 3 जुलाई 2014

आज ही के दिन कुलभूषण पंडित उर्फ "राजकुमार" इस दुनिया के फ़ानूसखाने से पिघल गया था...

 
-चिनॉय सेठ,
जिनके घर सीसे के बने होते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते..
(फिल्म 'वक्त')

-हमारी जुबान भी हमारी गोली की तरह है, दुश्मन से सीधी बात करती है..
 (फिल्म 'तिरंगा')

-हम आंखो से सुरमा नहीं चुराते, हम आंखें ही चुरा लेते हैं...  
(फिल्म 'तिरंगा')
 
-हम तुम्हें मारेंगे और जरूर मारेंगे..
 लेकिन वह वक्त भी हमारा होगा, बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी..
(फिल्म 'सौदागर')
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मैं जानता हूँ ! इन लाईनों के बाद किसी नाम और तार्रुफ़  की जरुरत नहीं पड़ेगी…
3 जुलाई 1996, कैलेंडरों में आज के ही दिन रुपहले परदे का एक अजीम साहाकार कुलभूषण पंडित उर्फ "राजकुमार" इस दुनिया के फ़ानूसखाने से पिघल गया। जिसके अदाकारी ने बीते कई बरसों में हमारे दिलों पर अपने अंदाज की एक अनोखी नक्काशी टाँकी दी थी। जिसकी खूबसूरती कई सदियों तक 'सपनीले पर्दे' की मायावी दुनिया में अपने खास अंदाज में तैरती रहेगी… जिसमें झक्क सफ़ेद लिबास था तो बार-बार ओठों से लगने वाली सिगार भी थी। गले से लगा रहने वाला स्कार्फ था तो अक्सर जुबां पर तैरते रहने वाला 'जानी' का सम्बोधन भी.… पर सोचता हूँ ऐसे अल्फाज जिस ज़ुबान से निकले होंगे, क्या वह भी लड़खड़ाई होगी ! 
जो अपने निभाए साहाकारों में दुनिया भर के सख्त लोहे के साथ अपने मीनारों पर इतराते तुर्शीबाजों की खिड़कियों के सजीले सीसे जज्ब कर चूका हो.....  आखिर वह अपने अंतिम वक्त में क्या सोचता होगा ?
 
 
शायद! अपने अंतिम समय में नितांत अकेले हो चुके राजकुमार ने यह महसूस कर लिया था कि उनका 'वक्त' अब काफी करीब है, इसीलिए अपने पुत्र पुरू राजकुमार को उन्होंने अपने पास बुला कर कहा कि देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होती हैं इसलिए मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा किसी और को नहीं बताना... मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही किसी और को बताना !
यह तो फिल्मों की मायावी दुनिया का एक रुखा सच है कि अपने अंतिम दिनों में ऊँची से ऊँची मीनार भी यहां एक दम खाली हो जाती है। जीवन के एकाकी कैनवास पर रूखी और बेजार तस्वीरें उभरने लगतीं हैं और सर-आँखों पर बिठाये रखने वाला भारतीय समाज बिसराने लगता है।  
 
खैर ! उस अजीम साहकार को याद करते हुए उसकी इबारतों को याद करते हैं। 
संवाद अदायगी के बेताज बादशाह राजकुमार का जन्म आजादी के पहले 8 अक्टूबर 1926 को पाकिस्तान के बलूचिस्तान में  हुआ था। राजकुमार ग्रेजुएशन करने के बाद मुंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में सब इन्स्पेक्टर के रूप में काम कर रहे थे। यहीं उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता बलदेव दुबे से हुई। जो राजकुमार के बातचीत के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने राजकुमार से अपनी फिल्म "शाही बाजार" में अभिनेता के रूप में काम करने की पेशकश की। यहीं शुरू होती है अपने तरह के एक अकेले राजकुमार की बिल्कुल फ़िल्मी कहानी। साथ ही एक बात का जिक्र बेहद जरुरी है और वह राजकुमार के अक्खड़ अंदाज का.. जो उनकी स्टाइल और एक्टिंग की तरह ही अनोखा था। राजकुमार अपने साहाकारों में ही नहीं अपनी असल जिंदगी में भी सेल्फ रिस्पेक्ट के लिए जीते रहे। ऐसे सैकड़ों किस्से फिल्म इंडस्ट्री में आज भी मशहूर हैं। 
 
वैसे फिलहाल उनके अभिनय जगत से ही रू-ब-रू होते हैं। 
1952 मे "रंगीली" में एक छोटी सी भूमिका करने के बाद राजकुमार लगातार कई फिल्मों में दिखाई दिए। लेकिन 1957 मे आयी महबूब खान की फिल्म "मदर इंडिया" के जरिये राजकुमार ने गांव के एक किसान की भूमिका में जबरदस्त छाप छोड़ी। इस फिल्म से वह इंडस्ट्री में अभिनेता के रूप में स्थापित हो गए।
इसके बाद 1959 मे रिलीज हुई फिल्म "पैगाम" में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के एक्टिंग किंग दिलीप कुमार थे लेकिन राजकुमार ने यहां भी अपने अंदाज में दर्शकों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी। इसके बाद दिल अपना और प्रीत पराई, घराना, गोदान, दिल एक मंदिर और दूज का चांद जैसी फिल्मों के जरिए दर्शकों के बीच अपने अभिनय की रौशनी बिखेर दी। 
बी. आर. चोपड़ा की फिल्म वक्त में राजकुमार का बोला गया संवाद "चिनाय सेठ" जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते, दर्शकों के बीच आज भी लोकप्रिय है। इसी तरह उस दौर में पाकीजा में  बोला गया उनका डायलॉग  "आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जायेगें" इस कदर लोक प्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे उनकी आवाज की नकल करने लगे।
उन्होंने हमराज, नीलकमल, मेरे हुजूर, हीर रांझा और पाकीजा जैसी फिल्मों की रूमानी भूमिकाएं भी स्वीकारीं तो वर्ष 1978 मे आयी फिल्म "कर्मयोगी" के जरिये राज कुमार ने अपने दो रूपों के कारण दर्शकों के दिलों में अपने नाम की एक कील ही ठोंक दी। 
 

वर्ष 1991 में सुभाष घई की फिल्म सौदागर में राज कुमार वर्ष 1959 मे प्रदर्शित फिल्म "पैगाम" के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के साथ काम किया। फिल्म में एक्टिंग की दुनिया के दो महारथियों का साथ देखने लायक है।  लेकिन नब्बे के दशक के अंतिम सालों में राजकुमार ने फिल्मों मे काम करना बहुत कम कर दिया। इस दौरान उनकी तिरंगा, पुलिस और मुजिरम, इंसानियत के देवता, बेताज बादशाह, जवाब, गॉड और गन जैसी फिल्में रिलीज हुईं। जिसमें से तिरंगा तो आज भी देश-भक्ति से भरे राष्ट्रीय दिवसों पर टेलीविजन पर 'फहरता' रहता है।
 
बावजूद 'रंगीली' फिल्म के बाद  राजकुमार ने पचास से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। जिनमें से कुछ प्रमुख फिल्मों के अलावा दुल्हन, जेलर, दिल अपना और प्रीत पराई, अर्धांगिनी, उजाला, घराना, दिल एक मंदिर, फूल बने अंगारे, दूज का चांद, प्यार का बंधन, ज़िन्दगी, काजल, लाल पत्थर, ऊंचे लोग, नई रौशनी, मेरे हुज़ूर,  वासना, हीर-रांझा, कुदरत, मर्यादा, हिंदुस्तान की कसम। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में उन्हें कर्मयोगी, चंबल की कसम, धर्मकांटा, जवाब आदि फ़िल्में की। 
 
पूरी इबारत के बाद अब यह कहना कत्तई मुगालता नहीं होगा कि अब राजकुमार जैसे अक्खड़ अभिनेता इस दुनिया में कभी नहीं आएंगे……  
 
 
 -अमृत सागर 

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