रविवार, 28 सितंबर 2014

मैं हूँ और रहूंगी !

जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘क्वीन’ बन चुकी स्त्रियाँ अब लाइफ के ‘हाइवे’ पर अकेलेदम चलने वाली “मर्दानी” के किरदार में हैं– वह आज खुलकर कहती हैं.. मैं हूँ और रहूंगी !


भले यह महज एक संयोग हो कि इक्कीसवीं सदी की स्त्री को रेखांकित करती फिल्म क्वीन में कंगना रनौत जिस किरदार को जी रहीं थीं उसका नाम भी ‘रानी’ था और उसके कुछ महीनों बाद ही एक और ‘रानी’ को ध्यान में रखकर इंडस्ट्री का सबसे बड़ा प्रोडक्शन हॉउस यशराज बैनर; अपनी ही बनाई लीक तोड़कर फिल्म बनाता है- मर्दानी. हम इस बातचीत में ‘हाइवे’ की ‘वीरा’(आलिया भट्ट) को भी शामिल कर सकते हैं. जिसके मुख्य किरदार का नाम भी ‘वीर’ शब्द का स्त्री संस्करण सा लगता है. लेकिन हो-हल्ला मर्दानी नाम पर ज्यादा हुआ. जिसका कारण मर्द से बना मर्दानी शब्द है. संभवतः मर्दानी शब्द का सबसे पहला प्रयोग शुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मी बाई के लिए लिखे काव्य ‘खुब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली...’ में किया था. इस काव्य में भी एक रानी के लिए ही मर्दानी शब्द का प्रयोग किया गया जाता है. 

शायद! तभी ऐसी फिल्मों के रिलीज होते ही विमर्शों के खाँचें खोल दिये जातें हैं और ‘मर्दानी’ के हवाले से यह मान लिया जाता है कि स्त्री इस ज़माने में भी मर्द जमात के पूर्वाग्रहों से आजाद नहीं हो सकती. यह विमर्शों की मार्केटिंग है. पर यह भी सच है कि आज के दौर में भी विमर्शों के सभी कारक और कारण खुद को बाहुबली समझने वाले पुरुष जमात के पास ही है. तभी तो ‘हाइवे’ का महाबीर(रणदीप हुड्डा) हो या क्वीन फिल्म की रानी का मंगेतर विजय(राजकुमार राव); दोनों फिल्मों में कहानी की शुरुआत और कसावट; पुरुष अस्तित्व के सहारे ही आगे बढती है. लेकिन मर्दानी को छोड़ अन्य दो फिल्मों में एक बात समान है कि नाम से लेकर वैचारिक विरोध की पृष्ठभूमि तक मर्दों के इर्दगिर्द ही बुनी गयी है. कारण ‘क्वीन’ जैसा शब्द भी ‘किंग’ के अस्तित्व की पुरजोर पुष्टि करता है. पर मर्दानी के कथानक में परजीविता नहीं स्वअस्तित्व की अनुभूति ज्यादा स्पष्ट होती है. ‘मर्दानी’ की कहानी स्त्री के अपने अस्तित्व से कहीं समझौता नहीं करती. बल्कि देह व्यापार की परतों में सबसे भीतरी तहों को खोलती हुई एक भोथरी सच्चाई से हमें रू-ब-रू कराती है. 

सेक्स के रॉ मटेरियल के लिए यूज किये जाना वाला भारत हर आठ मिनट पर अपनी एक बच्ची या युवती को लापता होते देखता है. निर्देशक प्रदीप सरकार ने इस इश्यू को ध्यान में रखकर गोपी पुथरन की कहानी पर 'मर्दानी' बनाई है लेकिन फिल्म के हर मोड़ पर स्त्री के बदलते स्वरूप को बेहद बारीकी से सपोर्टिंग इफेक्ट्स की तरह मर्ज किया गया है. जहाँ वह कहती है ‘मैं हूँ और रहूंगी’.

दरअसल, मर्दानी में सिर्फ चोर-पुलिस का खेल ही नहीं है बल्कि बैकग्राउंड में गर्ल-चाइल्ड ट्रैफिकिंग को भी बैकबोन की तरह स्थिर रखा गया है. जिसके इर्द-गिर्द अपने पति और भतीजी के साथ रहने वाली क्राइम ब्रांच की सीनियर इंस्पेक्टर शिवानी रॉय(रानी मुखर्जी) अपनी लड़ाई लड़ती है. वह निडर है, गालियां बकती है यहां तक कि उसमें मुम्बईया फिल्मी हीरोज के सभी अतिरिक्त गुण भी हैं.

फिल्म में रानी मुखर्जी ने एक इंस्पेक्टर का किरदार पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाया है. उनके अभिनय में कहीं भी हड़बड़ी नहीं दिखाई देती. एक्शन सीन में जरूर वे थोड़ी कमतर दिखती हैं लेकिन उसका कारण भी पुरुष मानसिकता से गढ़ी गयी यह मानसिक दुनिया है. जहां महिलाएं महज एक सपोर्टिंग एक्टर हैं. क्योंकि समाज में मर्दों की तरह देह रखना सिर्फ पुरुषों का अधिकार है. जिसके दम पर वह हमेशा स्त्रियों को कमसिन और खुबसूरत की परिभाषा में बांधे रखते हैं. इसके अलावा फिल्म का बाकी हिस्सा सिर्फ कहानी को कहने के लिए मोड़ भर हैं.

विलेन के रूप में ताहिर राज भसीन ने रानी को जबरदस्त टक्कर दी है. फिल्म में वे खून-खराबा करते या चीखते हुए नजर नहीं आते, बावजूद इसके वे अपने अभिनय से खौफ कायम करने में कामयाब रहे. शायद निर्देशक ने फिल्म के पिछले दरवाजे से यह स्पष्ट किया है कि असल में सामाजिक परिवेश के विलेनों में आज बहुत बड़ा बदलाव आ चुका है. वह मासूम और सफ़ेदपोश दिखता है. वह अच्छे कपड़े पहनता है और माडर्न दिखता है. पर वह इरादों में बेहद खुंखार है. इसे भी यह फिल्म बेपर्दा करती है. 



 क्वीन से ज्यादा मर्दानी! 


पिछली सदी के शुरूआती दशकों में रूस के समाजवादी क्रांति के बाद से नारियों को असल अधिकार मिलने शुरू हुए. इंगलेंड जैसे देश ने अपने यहाँ की स्त्रियों को वोटिंग का अधिकार 1925 में दिया वहीं फ्रांस में यह अधिकार 1944 में दिया गया. स्विट्जरलेंड जैसे देश में यह अधिकार 1971 में मिला. अपने देश में आज़ादी के बाद संविधान के लागू होते ही महिलाओं को समान अधिकार दिए गये पर हकीकत जरा कागजी है.

शायद! सामाजिक परतंत्रता की कई ग्रंथियां होती हैं और स्वतंत्रता व स्वाधीनता के लिए उन सभी को खोलना पड़ता है. कौन सी ग्रंथि पहले खुलती है यह परिवेश पर निर्भर करता है. भारत की स्थितियां इस मामले में बेहद जटिल हैं.

पिछले दिनों आयी फिल्म ‘क्वीन’ नारी वर्ग की शादी से जुड़ी ग्रंथियों को आजाद करती है. जिसमें नायिका अपने मंगेतर के शादी से महज दो दिनों पहले रिश्ता तोड़ देने के बावजूद हनीमून पर विदेश जाने के लिए निकल जाती है लेकिन उसके बाद ‘आजादी’ से रू-ब-रू हुई नायिका अपने मंगेतर के वापस लौटने के बाद भी वापिस नहीं लौटती. जैसे ठीक ‘हाइवे’ की वीरा करती है. अपने सेफजोन को एक झटके में तोड़ फेंकती है और अपने पारिवारिक ग्रंथी से आजादी का रास्ता लेती है.

तभी तो कई बार सिर्फ सफर में ही मजा आता है. जहां से हम चले थे वहां वापस नहीं जाना चाहते और न ही किसी मंजिल तक, ऐसा लगता है कि सफर कभी खत्म ही न हो. आज स्त्रियाँ हाइवे की वीरा की तरह उसी सफ़र पर है. अंतर बस इतना है कि वह अपने सफ़र पर ‘क्वीन’ से ज्यादा ‘मर्दानी’ बनकर रहना चाहती हैं.

-अमृत सागर

(यह समीक्षात्मक लेख रूबरू दुनिया में प्रकाशित हो चुका है!)

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