शुक्रवार, 27 जून 2014

सिनेमा: अभिव्यक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम: कमल स्वरुप

भारतीय सिनेमा के सौ होने के उपलक्ष्य में अपने तरह का एकदम अलहदा फिल्म-निर्देशक कमल स्वरुप से ’हंस- फरवरी- 2013- हिन्दी सिनेमा के सौ साल’ के लिए  उदय शंकर द्वारा लिया गया एक साक्षात्कार

कमल स्वरुप


(८०-९० के दशक में सिनेमा की मुख्या धारा और सामानांतर सिनेमा से अलग भी एक धारा का एक अपना रसूख था. यह अलग बात है कि तब इसका बोलबाला अकादमिक दायरों में ज्यादा था. मणि कौल, कुमार साहनी के साथ-साथ कमल स्वरुप इस धारा के प्रतिनिधि फ़िल्मकार थे. वैकल्पिक और सामाजिकसंचार साधनों और डिजिटल के इस जमाने में ये निर्देशक फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। संघर्षशील युवाओं के बीच गजब की लोकप्रियता हासिल करने वाले इन फिल्मकारों की फिल्में (दुविधा,माया दर्पण और ओम दर बदर जैसी) इधर फिर से जी उठी हैं। आज व्यावसायीक और तथाकथिक सामानांतर फिल्मों का भेद जब अपनी समाप्ति के कगार पर पहुँच चूका है, तब इन निर्देशकों की विगत महत्ता और योगदान पुनर्समीक्षा की मांग करता है।

कमल स्वरुप फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट पुणे के1974 के स्नातक हैं। घासीराम कोतवाल(1976),अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान (1978), गाँधी(1982), सलीम लंगड़े पर मत रो (1989), सिद्धेश्वरी(1989)जैसी फिल्मों में सहायक निर्देशक, संवाद लेखक, प्रोडक्शन डिजाइनर और शोधार्थी के बतौर इनका रचनात्मक सहयोग रहा है। बतौर निर्देशक-निर्माता कमल स्वरुप ने अभी तक सिर्फ एक फिल्म बनाई है- ओम दर बदर(1988), भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी तरह की एक मात्र कल्ट फिल्म, फिल्म फेयर पुरस्कार से पुरस्कृत। ओम दर बदर के अलावे कुछ डाक्यूमेंटरी फिल्में भी। दादा साहेब फाल्के और भारतीय फिल्म-इतिहास का अद्भुत अध्य्येता। फ़िलहाल दादा साहब फाल्के का महा-वृतांत रचने में मशगुल।

Tracing Phalke By kamal swaroop


प्रश्न एक: भारतीय सिनेमा की एक सदी बीत गई। तो, सबसे पहला सवाल यही कि सिनेमा क्या है? और इस आलोक में भारतीय-सिनेमा की विशेषताएं क्या हैं?

कमल स्वरुप- हमारा अधिकांश सिनेमा या तो वास्तविक जीवनकाल का एक संक्षिप्त संस्करण होने का प्रयत्न है या फिर किसी साहित्यिक कृति की जस की तस अनुकृति होने की कोशिश। मैं चाहता हूँ कि ऐसे फिल्मकार हो जो अपनी कृति को सदा सफल और लोकप्रिय मुहावरों में तिरोहित कर देने की जगह सिनेमा को साहित्य के नाट्यकृत पुनरुत्पादन की भूमिका से खुद को अलग कर पाठ,गति, ध्वनि और बिम्ब के सम्बन्ध को पुन्व्यर्ख्यायित करने का प्रयत्न करें। सिनेमा अभियक्ति का नहीं अन्वेषण का माध्यम है। सिनेमा के वस्तुगत यथार्थ का लेखक के अंतर्जगत, नैतिकता या सौंदर्यशास्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। ये तत्व यथार्थ को दोष-पूर्ण बनाते हैं। सिनेमा- भावुकता और प्रतीकात्मता से रहित। शुद्ध कला कृति। ऐसा आलें रॉब ग्रिए का कहना है और मैं उनसे पूर्णतया सहमत हूँ।

संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत दुसरे देशों की तुलना में बहुत आगे है। यूरोप का फिल्म-उद्योग हॉलीवुड के हमले के सामने घुटने टेक चुका है। केवल भारत है जिसका फिल्म-उद्योग आत्मनिर्भर है। किन्तु, सिनेमा की दृष्टि से देखा जाए तो भारतीय फिल्में अभी तक नौटंकी और नाट्य-संगीत से ऊपर नहीं उठी हैं। शायद यही कारण है कि वह अब तक हॉलीवुड से बचा हुआ है।
प्रश्न दोः भारतीय सिनेमा ‘राजा हरिश्चंद्र‘ से शुरू होकर ‘ओमदरबदर‘ से होते हुए वर्तमान तक आकर आता है. और इस यात्रा-क्रम में भारतीय-सिनेमा मिथक, विज्ञान, और संस्कृति का सम्मिलन लगता है. इन श्रेणियों(synthesis) की अभिव्यक्ति के रूप में सिनेमा को कैसे देखते हैं!! (The movie omdarbadar comingles mythology, science, tradition and creats the existentiality of the present. How do you see film as the expression of the synthesis of these categories !

कमल स्वरुप- आज जो भी मूल्य हैं सब अतीत के हैं। प्रारंभ में फिल्मों का उपयोग दुसरे माध्यमों में प्रकट कलाकृतियों को किसी स्थायी माध्यम में परावर्तित करने का प्रयास था। कथा-कहानियां, नाटक, या फिर रविवर्मा के पौराणिक चित्र। इन कृतियों के प्रतीकों में समकालीनता को तलाशते हुए उनके राजनैतिक रूपांतरण की कोशिश हुयी। फिर आये ऐतिहासिक आख्यान और संतों के जीवन- चित्र। फिल्में अतीत की स्मृतियों के व्यापक प्रचार-प्रसार का माध्यम बना। फिल्मों में ध्वनि के आगमन के बाद अतीत की उन्हीं मूक कहानियों को फिर से दोहराया गया, चित्रित किया गया। और, फिर आये सामाजिक समकालीन नाटकों और साहित्यिक कृतियों का फ़िल्मी रूपांतरण।

सिनेमेटोग्रफिक यंत्रों का अविष्कार और विकास-क्रम अपने आप में एक स्वयंसिद्ध घटना थी।वह कला का माध्यम कब बनी और कैसे बनी ,वह दूसरी बात है लेकिन हमें ये बात भी नहीं भूलना चाहिये कि सिनेमेटोग्राफी जादूगरों, जांत्रिकों और तांत्रिकों के मिले जुले प्रयत्न थे, उनकी इच्छा शक्ति थी। कुछ लोगो का मानना है कि केवल एक प्राकृतिक संयोग भर था। अनेक नए उपन्यासकारों में सिनेमा के प्रति उत्पन हुये आकर्षण का कारण क्या था? वे कैमरे की वस्तुपरकता से नहीं बल्कि उसकी आत्मपरकता और कल्पनात्मक संभावनाओं से प्रभावित हुये थे। वे सिनेमा को अभिव्यक्ति का नहीं, बल्कि अन्वेषण का माध्यम मानते थे। और, उन्हें सर्वाधिक दिलचस्पी उस पदार्थ में हुई जिसे लेखन में व्यक्त करना ज़रा भी संभव नहीं था। दोनों इंद्रियों, आँख और कान, पर एक साथ खेल करना। इन बोलते चलचित्रों में कोई एक आदिम गुण है। और वह वर्तमान का हिस्सा है। सनातन वर्तमान का समूचा बल और वेग। सिनेमा, बिम्बों की प्रकृति का नहीं बल्कि उनकी संरचना का सवाल था। ये नयी फ़िल्मी सरंचनाएँ, बिम्बों और ध्वनियों की ये हलचलें दर्शक की समझ में फ़ौरन आ जाती हैं। इनकी ताकत साहित्य से बहुत बड़ी है। यही युग न्यू थियेटर, बाम्बे टाकीज और प्रभात का था।फिर बने तारे सितारे। उनके प्रजनन के अनुष्ठान, मानों सिनेमेटोग्रफिक मशीन की मूल प्रकृति, मेकेनिकल्स मीन्स ऑफ़ रिप्रोडक्शन,को मुंह चिढ़ाते। ये नए फोटोजेनेटिक्स (photo-genetics) पीढियों दर पीढ़ियों का राष्ट्रीय कैलेंडर रचने लगा। कथा केवल उनके प्रेमपुराण थे। हम उनके जन्म-मृत्यु से अपना जीवन नापने लगे। साहित्य-सिनेमा ने इस प्रजनन की निष्ठुरता और असहिष्णुता के सामने घुटने टेक दिए। पूँजी के हाथ एक कालजयी हरम लगा था। इस मादक अग्निस्नान में दर्शक स्वाहा होने लगा। काल की बलि चढ़ा।

मैं अब सीधे ओम दर बदर पर आना चाहूँगा। कुछ घुमा-फिरा कर। किसी महान रचनाकार के शब्द हैं जिनका नाम मैं नहीं बताना चाहता हूँ। नक़ल से अकल वो रहे सदा। वो फिल्म मेरी कल्पना के टुकड़े थे और मैं भाषा के समान सरचना का आनंद ले रहा था। किन्तु मैं चाहता था कि एक ऐसे संसार का संवाहक बनूँ जो कि न तो बिम्ब है, न ध्वनि। यही वह संसार है जिस तक मैं विभिन दिशाओं से, अनेक सड़कों से होकर पहुँचाना चाहूँगा और वो सत्य मेरे बचपन का दानव होगा। वह उसी दानव से बचने के लिए बुनी गयी कहानी थी। मृत्यु से बचने का मेरा उपहास-जनक अनुष्ठानिक-प्रयत्न और उसका भयावह अंकन। ओम फिल्म नहीं है, वह फिल्मों से पलायन का चित्रण है। मैं सिनेमा के संसार में भाग कर आया था, यथार्थ से छुपने किन्तु मैंने पाया कि सिनेमा मृत्यु भी है और पुनर्जीवन भी और ओम के द्वारा मैं भाग निकला, यह मैं दावे के साथ कहता हूँ। मुझे अपनी मॉक (mock)- मृत्यु का खेल खेलने में खूब मज़ा आया। ओम फिल्म नहीं, खुद को एक झांसा था और न ही मैं कोई फिल्मकार।

Om darbadar(1988)


प्रश्न तीनः सिनेमा अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में क्या हमारे सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन को दिशानिर्धारित करने में सक्षम है? स्वातंत्र्योत्तर भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में हस्तक्षेप करने में यह कितना सक्षम हुआ है!! पूरी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में (एक-दो अपवादों को छोड़) कोई भी अच्छी राजनैतिक फिल्म नहीं बन पाई है। इसमें सेंसर बोर्ड की ज़िम्मेदारी है या साहस की कमी?

कमल स्वरुप- मेरे लिए सिनेमा अभिव्यक्ति नहीं कितु अभिव्यक्ति के विभिन्न व्याकरणों की जांच-पड़ताल है। जैसा की शुरू में कहा कि अन्वेषण है। वैसे भी रियल नारियल है, क्यों और सरपलस (surplus) पैदा किया जाये। हमें ‘भंगी’ फिल्मकारों की ज़रुरत है जो झाड़ू फेरे और इस रियल नारियल के खिलाफ जंग छेड़े। वर्ना पता नहीं लगता नेहरू जी की मुद्रा दिलीप कुमार से आई थी या दिलीप कुमार की नेहरू जी से। नर्गिस मदर इण्डिया पहले बनी या फिर शक्ल समान होने का कोई खानदानी राज़ है।

मज़े की बात है कि फालके खुद स्वदेशी आन्दोलन के हिस्सा थे और तिलक के जीवन से प्रभावित थे। जब उन्होंने लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट देखी तो लगा हम अपने भारतीय बिम्ब कब परदे पर देखेंगे। ये विदेशी कल्पनाएँ हमारी चेतना को धीरे धीरे नष्ट कर देंगी। शुरू की फिल्मों के बिम्बों में गूढ़ राजनैतिक संदेश छुपे हुये रहते थे और अंग्रेजों को सेंसर बोर्ड की स्थापना करनी पड़ी थी। पौराणिक आख्यानों के बाद ऐतिहासिक फिल्मों के ज़रिये एक राष्ट्रवादी उतेजना को पैदा किया जाने लगा था। उसके बाद सामाजिक फिल्मों के ज़रिये समाज में व्याप्त रुढ़िवादी रीति-रिवाजो पर प्रहार किये जाने लगे।भक्ति काल के संतो पर बनी सभी फिल्में खूब सफल रहीं । फिल्मों के ज़रिये से एक आत्मविश्वास जगाया जा रहा था।

अब रही बात आज की। सबसे पहले मैंने राजनैतिक फिल्मों की बात कुमार शाहनी से सुनी थी उन दिनों मैं उनकी फिल्म तरंग में काम कर रहा था। वे वामपंथी विचारधारा से जुड़े थे। मैंने समझा कि राजनैतिक फिल्में, सत्ता के शक्ति-संघर्षो की कथा होती है। उसे दर्शाने के लिए वे वामपंथी विचारों का या कहें तो फार्मूला का उपयोग करते थे। फिर जाना कि सत्ता-संघर्ष केवल देश में ही नहीं, यहाँ तक कि परिवार में भी चलती है और वह किसी भी आधार पर हो सकती है।

अब मैं मनाता हूँ की एक ही बात को विभिन कोणों से देखने पर अलग घटना का निर्माण होता है।और वे सारेदृष्टिकोणअलग-अलग विचारधारा का निर्माण करती हैं जो कि हमारे निजी स्वार्थों से नियंत्रित होती हैं। निजी स्वार्थों से परे जाने के लिए हमे एक वस्तुनिष्ठ विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है जो कि एक असम्भव कार्य है। यहाँ पर समानुभूति की अपेक्षा की जा सकती है, जिस की कमी आज हम सब में है। मैंने यह बात केवल घटक में देखी है।

प्रश्न चारः समकालीन बॉलीवुड सिनेमा में तकनीकी विकास तो झलकता है किन्तु विषय वस्तु के स्तर पर अधकचरापन बार-बार उभरकर आता है। बड़े निर्देशकों की फिल्मों में भी! इसे बौद्धिकता के अभाव से जोड़कर देखा जाए या ईमानदारी के अभाव से? एक कला-माध्यम के रूप सिनेमा की स्वायत्तता को आप कैसे देखते हैं?

कमल स्वरुप- डिजिटल के आने से मुझे लगता है कि हम पहली बार स्वायत्तता को क्लेम कर सकतें हैं। सिनेमा अनुभूति और संवेदना, व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्ध का विज्ञान है। विभिन्न नाट्य एवं ललित कलाओ का समिश्रण है। किसी घटना के काल और दिक् के आयामों का रूपांकन है। इस स्तर की सूक्ष्मता का बॉलीवुड में पूर्णतया अभाव है। हमारे यहाँ अब तक प्रोडक्शन डिजाइन (production design) नाम की चीज़ का पता नहीं है। फिल्म का मतलब है स्टार कौन है और इसी बात पर पैसा उठता है। बॉलीवुड की अपनी भाषा है और उसका जीवन से कोई सम्बन्ध या जीवन के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है। और उन्हें देखना हमारी आदत बन चुकी है, हमारे काल का निर्णय उसी से होता है। जब आमिर खान चलता है तो सब लड़के उसी जैसे लगने लगते हैं। जब अमिताभ चला था तो सब उसी जैसे लगने लगे थे .

प्रश्न पांचः बालीवुड सिनेमा की भाषा पहले उर्दू हुआ करती थी फिर हिन्दी-उर्दू का मिला-जुला खूबसूरत रूप। अस्सी के दशक के बाद हिन्दी में बोले गए संवादों को दुबारा अंग्रेजी में दोहराने का चलन बढ़ा जिससे फिल्मों की लंबाई भी अनावश्यक रूप से बढ़ती थी और अब ज्यादातर सिनेमा के नामों में भी अंग्रेजी के नाम जोड़े जाने लगे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?

कमल स्वरुप- बोलती फिल्मों के शुरू होने पर अधिकतर लेखक हिंदी उर्दू से आये थे, अधिकतर लाहौर से। अब तो हिंदी-उर्दू कोई भी नहीं पढ़ता। कुछ लोग एन एस डीसे भले आते हैं, पर अब मुंबई में हिंदी-उर्दू नाम मात्र के लिए बची है। धीरे धीरे बोलचाल की भाषा अंग्रेज़ी में बदल रही है। स्क्रिप्ट इंग्लिश में लिखी जा रहीं हैं। सवांद हिंदी में ज़रूर होते हैं पर अधिकतर अंग्रेजी फिल्मो के अनुवाद। हॉलीवुड इस बात को समझ रहा है और अपनी अधिकांश फिल्मों को भारतीय भाषाओं में डब करके एक नया बाज़ार खड़ा कर रहा है।
प्रश्न छः क्या हिन्दी सिनेमा की दुनिया भी दो हिस्सों में बंट गई है- एक इलीटिस्ट सिनेमा जो मल्टीप्लेक्स में चलता है–दूसरा जो मझोले शहरों और कस्बों में?

कमल स्वरुप- मल्टीप्लेक्स वाले दर्शक भारतीय फिल्मो में हॉलीवुड या योरोपियन फिल्मो का व्याकरण ढूंढने जाते हैं ,छोटे शहरों के लोग शायद अभी तक उससे परिचित नहीं हैं। पर एक ज़माना था जब यह अंतर नहीं था। हमारा अपना खुद का विकसित व्याकरण था। प्रभात, न्यू थिएटर, राजकमल आदि काफी आगे थे और किसी भी वर्ग के दर्शक से संवाद करने में सक्षम थे.
प्रश्न सात: भारतीय सिनेमा के सर्वांगीण के विकास के लिए क्या कुछ होना चाहिए?

कमल स्वरुप- उत्पादन का विकेंद्रीकरण। तत्पश्चात, प्रांतीय कृतियों का अनुवादों के जरिये आदान-प्रदान। नाट्य एवं ललित कलाओं के कर्मियों का एक-जुट मंच, हर शहर-प्रान्त में।साहित्यिक-पत्रिकाओं की तरह सिने-कृतियों का वितरण। हर छोटे शहरमें फिल्मोत्सव और सिने-शिक्षा के शिविर।
प्रश्न आठ: ओमदरबदर की परंपरा से प्रभावित युवा निर्देशक सिनेमा के व्याकरण को बदलने की कोशिश कर रहे हैं. क्या इसे सार्थक बदलाव के रूप में देखा जा सकता है?

कमल स्वरुप- कुछ दिन पहले मैंने आनंद गाँधी की Ship of Theseus देखी और उसे अपने काफी करीब पाया। पूर्णतः एक वैचारिक फिल्म, जो की ब्रहम-विभ्रम की प्रस्तुति के पार जाती है।

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