मंगलवार, 1 जुलाई 2014

ऑस्कर पुरस्कार : विदेश नीति के हथियार


- रामजी तिवारी

हाल ही में ऑस्कर पुरस्कारों की घोषणा की गई, और प्रत्येक वर्ष की तरह इस वर्ष भी दुनिया भर के टी.वी. चैनलों ने उस समारोह को सीधे प्रसारित किया। अगले दिन के समाचारपत्रों में इन पुरस्कारों से संबंधित खबरों की धूम रही। जिस फिल्म आर्गो को इस वर्ष का ऑस्कर पुरस्कार दिया गया, उसने दुनिया की प्रत्येक सी.डी. लाइब्रेरी में वर्षों तक के लिए अपना स्थान पक्का कर लिया। ऑस्कर पुरस्कारों का ठप्पा लगना इस बात के लिए काफी माना जाता है कि वैश्विक स्तर पर इस फिल्म की मांग भविष्य में भी हमेशा बनी रहेगी। जीतने वाली फिल्मों के अलावा यह बात ऑस्कर के लिए नामांकित फिल्मों पर भी लागू होती है। अगली बार जब आप सी.डी. लाइब्रेरी में जाएंगे, तो आपको वह दुकानदार उस सी.डी. रैपर के ऊपर लिखा ऑस्कर नामांकन का संदेश अवश्य दिखाएगा, और मजे की बात यह है कि आप उसे देखना भी चाहेंगे। पूरी दुनिया में ऑस्कर पुरस्कारों के प्रति यही मोह और भ्रम पाया जाता है, जबकि हकीकत यह है कि ये पुरस्कार अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री हॉलीवुड के पुरस्कार हैं, जिसे ‘एकेडमी आफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज’ नामक संस्था द्वारा प्रति वर्ष प्रदान किया जाता है। इनका आरंभ 1929 में किया गया था और इस वर्ष आर्गो का यह 85 वां ऑस्कर पुरस्कार है।

इन पुरस्कारों को लेकर अपने देश में ‘मोह और भ्रम’ से आगे बढ़कर ‘पागलपन’ की स्थिति बनती दिखाई दे रही है। और इधर के वर्षों में वह काफी बढ़ गई है। स्लमडाग मिलिनेयर का उदाहरण हमारे सामने है। उस फिल्म को भारत में इस तरह से प्रचारित किया गया, गोया वह कोई भारतीय फिल्म हो, या वह भारतीय समाज को प्रतिबिंबित करती हो। वही ‘पागलपन’ इस साल भी लाइफ ऑफ पाई के लिए दिखाया जा रहा था। खैर … पुरस्कारों की घोषणा हुई, और उम्मीद के मुताबिक ही आर्गो फिल्म को इससे नवाजा गया। स्वतंत्र प्रेक्षक इस बात को पहले ही मान चुके थे, कि इस बार आर्गो या जीरो डार्क थर्टी में से ही किसी एक फिल्म को ऑस्कर दिया जाएगा। कारण साफ था। आर्गो ईरान में घटित 1979 की घटना पर आधारित है, जबकि जीरो डार्क थर्टी ओसामा बिन लादेन की खोज और उसके पाकिस्तान में मारे जाने की घटना को दिखाती है। जाहिर है, ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्मों में चुनाव के दौरान उस फिल्म के हाथ में बाजी लगी, जिसमें अमेरिका अपने भविष्य की संभावनाएं देखता है। इन अर्थों में एक दशक पहले की अपेक्षा, चार दशक पहले की घटनाओं में गोते लगाने को अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए।

हैरानी की बात यही है, कि एक तरफ जहां दुनिया में इन पुरस्कारों को लेकर ‘मोह और भ्रम’ का यह वातावरण बना हुआ है, वहीं दूसरी तरफ हॉलीवुड का फिल्म उद्योग इन पुरस्कारों के माध्यम से अमेरिकी विदेश नीति के हथियार के रूप में काम करता है। इस साल के पुरस्कारों से यह बात और स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है, कि साम्राज्यवादी और विस्तारवादी देशों की नीतियां अपने हिसाब से कलाओं को भी नियंत्रित करती हैं, और जिन कलाओं-विधाओं के ऊपर उस समाज को दिग्दर्शित करने की जिम्मेदारी होती है, वही कलाएं और विधाएं उन विस्तारवादी नीतियों के हाथों में खेलने लगती हैं। अन्यथा अकादमी के सामने दो बेहतरीन फिल्मों—लिंकन और लॉ मिज़राब्न—का विकल्प तो था ही, जिनके आधार पर वह अपने चेहरे को चमका सकती थी, लेकिन उसने अपने इतिहास को दुरुस्त करने के बजाय, पूर्व की भांति ही इन फिल्मों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया। तो आइये पहले यह जानने की कोशिश करते हैं, कि इस साल की ऑस्कर विजेता फिल्म आर्गो आखिर दिखाती क्या है, और अंतत: इस फिल्म से कौन सा संदेश ध्वनित होता है?

बेन अफलेक द्वारा निर्देशित यह फिल्म आर्गो ईरान में इस्लामी क्रांति के दौरान हुई उस ‘वास्तविक घटना’ को लेकर बनाई गई है, जिसमें 4 नव. 1979 को एक अतिवादी मुस्लिम गिरोह द्वारा अमेरिकी दूतावास पर हमला किया जाता है, और दूतावास के 60 से अधिक कर्मचारियों को बंधक बना लिया जाता है। संयोगवश इनमें से छह लोग किसी तरह से भागकर बगल के कनाडाई दूतावास में छिप जाते हैं। इन्ही 6 लोगों को सी.आई.ए. एक गुप्त मिशन के सहारे ईरान से सुरक्षित निकालने की योजना बनाती है। योजना के अनुसार एक ‘विज्ञान-फैंटेसी फिल्म’ बनाने वाली कंपनी के रूप में सी.आई.ए. के अधिकारी यह कहते हुए ईरान में दाखिल होते हैं, कि उन्होंने इस देश को अपनी फिल्म की लोकेशन के लिए चुना है। बाद में कनाडाई दूतावास में छिपे उन सभी छह लोगों को कनाडा का फर्जी पासपोर्ट देकर, फिल्म बनाने वाली उसी कंपनी का सहयोगी दिखा दिया जाता है। और एक नाटकीय अंदाज में 28 जनवरी 1980 को उन्हें सुरक्षित निकाल भी लिया जाता है। जाहिर है कि यह फिल्म उस मानसिकता को ध्यान में रखकर बनाई गई है, जिसमें अमेरिकी लोग अपने आपको ‘हीरो’ जैसे दिखान पसंद करते हैं।

फिल्म को वास्तविक दिखाने के लिए ऐतिहासिक पात्रों और टी.वी. दृश्यों का भरपूर प्रयोग किया गया है। थ्रिलर फिल्मों को दिखाने में हॉलीवुड के पास अपनी महारत तो है ही। और इस फिल्म में जब ऐतिहासकिता के साथ उसे जोड़ा गया है, तो वह और आकर्षक बन गई है। लेकिन इसी चक्कर में फिल्म एक-पक्षीय और प्रोपेगंडा हो गई है। इसमें ईरानी लोगों को असभ्य दिखाया गया है, और ऐतिहासिक संदर्भो की अपनी व्याख्या की गई है। यह फिल्म न सिर्फ सी.आई.ए. को महिमामंडित करती है, वरन उस समूचे परिदृश्य को नजरअंदाज भी करती है, जिसमें यह घटना घटी थी। फिल्म कनाडा और न्यूजीलैंड के राजनयिकों द्वारा निभाई गई भूमिका को भी महत्त्वहीन बनाने का काम करती है, जबकि ऐसा माना जाता है, कि उन छह व्यक्तियों की रिहाई का मूल विचार कनाडा का ही था। तभी तो फिल्म को देखने के बाद कनाडा ने अपनी क्रुद्ध प्रतिक्रिया दी। उसके अनुसार ‘यह फिल्म सी.आई.ए. के लिए लिखी गई है, और हमारी भूमिका को महत्त्वहीन बनाती है। ‘ इन आपत्तियों के बाद इस फिल्म में कनाडा के लिए भी कुछ जोड़ा गया। वहीं न्यूजीलैंड की आपत्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि फिल्म को ऑस्कर दिए जाने के बाद 12 मार्च 2013 को वहां की प्रतिनिधि सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया, कि ‘इस फिल्म के सहारे हमारे राजनयिकों की मेहनत और साहस को कमतर करने का प्रयास किया गया है। ‘

लेकिन सबसे तीखी प्रतिक्रिया ईरान द्वारा दिखाई गई। उसका कहना था, कि फिल्म में ईरान के पक्ष को बिलकुल भी नहीं दिखाया गया है और ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है। ईरान का यह भी मानना है, कि इसे पुरस्कृत करके हॉलीवुड ने अमेरिकी प्रचार युद्ध को ही पोषित किया है। इस फिल्म को लेकर आपत्तियां और भी हैं, जिसमें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और एकपक्षीय बनाने की बात शामिल है। लेकिन इन आपत्तियों से आगे बढ़कर उन मूल बिंदुओं की तरफ नजर दौड़ाना उचित होगा, जिन्हें ध्यान में रखकर इस फिल्म को पुरस्कृत किया गया है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया पर से योरोपीय वर्चस्व टूट जाता है, और दुनिया स्पष्टत: दो खेमों में विभाजित हो जाती है। एक अमेरिकी नेतृत्व में पूंजीवादी खेमा और दूसरा सोवियत नेतृत्व में साम्यवादी खेमा। दोनों ही खेमों का यह प्रयास रहता है कि अधिक से अधिक देशों को अपने पाले में लाया जाए। ऐसा करने के लिए लोभ, लालच, साम, दाम, दंड और भेद जैसे सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं। इन्हीं हथकंडों में अपनी गुप्तचर संस्थाओं की मदद से विभिन्न देशों में तख्तापलट तक कराया जाता है, और अपने हित वाली सरकारों को सत्तासीन किया जाता है। ईरान में भी 1953 में इसी तरह का एक सत्ता-परिवर्तन हुआ था। अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. और ब्रिटिश गुप्तचर संस्था एम.आई. 6 ने मिलकर मोहम्मद मुसद्देह की जनता द्वारा चुनी गई लोकप्रिय सरकार को सत्ताच्युत कर दिया था, और अपनी पसंद के ‘शाह’ की सरकार को सत्तासीन। मोहम्मद मुसद्देह उन साम्राज्यवादी ताकतों की आंखों में इसलिए खटक रहे थे, क्योंकि उन्होंने अपने देश की तेल संपदा का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उनकी जगह जब ‘शाह’ को सत्ता मिली, तो वह उन साम्राज्यवादी शक्तियों की गोद में बैठ गए, जो ईरान को दोनों हाथों से लूट रही थीं। लगभग तीन दशकों तक ईरान में अमेरिका समर्थित शाह की सरकार चलती रही। इस दौरान अमेरिकी तेल कंपनियों को ईरान में तेल उत्पादन की खुली छूट मिल गई थी, और वहां के प्राकृतिक संसाधनों को दोनों हाथों से लूटा जा रहा था। उधर ईरानी जनता तमाम तरह के कष्टों को झेल रही थी। शाह अपने देश में लगातार अलोकप्रिय होते जा रहे थे, और कुल मिलाकर लोगों के बीच यह धारणा बन गई थी, कि ईरान की इस बदहाली की जिम्मेदारी अमेरिकी हस्तक्षेप और लूट के कारण पैदा हुई है। 1967 और 1973 के अरब-इजरायल संघर्ष में भी ईरान इसी वजह से किनारे खड़ा रहा, जबकि वह युद्ध पूरे क्षेत्र में फैला हुआ था। ऐसे में वहां अयातुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति हो गई, और शाह को देश छोड़कर अमेरिका भागना पड़ा। इसी अफरातफरी और अमेरिका विरोधी माहौल में 4 नवंबर 1979 को एक इस्लामिक गुट द्वारा अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया गया और साठ से अधिक लोगों को बंधक भी बना लिया गया था।

आरंभ में उस इस्लामिक गुट की मंशा एक तात्कालिक मांग और प्रदर्शन तक ही सीमित थी और जिसे अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा हतोत्साहित भी किया गया, क्योंकि उससे ईरान की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतने लगा, और अमेरिका द्वारा ईरान को अस्थिर करने की कोशिशें की जाने लगीं, इस्लामिक नेतृत्व वाली ईरानी सरकार का रवैया भी बदलने लगा। वह उस पूरी घटना को अपनी सरकार को मजबूती प्रदान करने के लिए इस्तेमाल करने लगी, और अमेरिका के सामने कुछ ऐसी मांगे रखी गई, जिनसे दुनिया भर में ईरान की गिरती हुई छवि को बचाया जा सके। एक—शाह को ईरान को सौंपा जाए। दो—अमेरिका ईरान में हुए 1953 के तख्तापलट के लिए माफी मांगें। और तीन—ईरान की अमेरिका में जब्त और संचित राशि को लौटाया जाए। जाहिर है, कि ये मांगें अयातुल्लाह के पक्ष में थीं, और इससे अपने देश में उनकी पकड़ मजबूत भी होने लगी थी। एक लंबी और थका देने वाली वार्ता के परिणामस्वरूप अंतत: इन बंधकों को 444 दिनों बाद 20 जनवरी, 1981 को रिहा किया गया, जिसकी मध्यस्थता अल्जीरिया ने की थी। बदले में अमेरिका ने ईरान की कुछ संपत्ति को तो लौटाया ही, साथ ही साथ दुनिया को यह आश्वासन भी दिया, कि वह भविष्य में उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इस पूरे बंधक संकट में दो बड़ी घटनाएं और हुई थीं। एक—जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है, कि छह कर्मचारियों को एक गुप्त अभियान के तहत छुड़ा लिया गया था, जिसमें कनाडाईन दूतावास की बड़ी भूमिका थी। और दो—24 अप्रैल 1980 को एक दूसरा गुप्त सैन्य-अभियान असफल भी हो गया था, और जिसमें अमेरिका के आठ सैनिक मारे गए थे।


फिल्म को देखने और उसके वास्तविक ऐतिहासिक परिदृश्य को समझ लेने के बाद शायद ऑस्कर पुरस्कारों की इस राजनीति को समझा जा सकता है। पहली बात तो यह कि आर्गो उस समूचे परिदृश्य को नहीं पकड़ती, वरन चयनित तरीके से अपने खास हितों की घटनाओं को पकड़ कर आगे बढ़ती है। दूसरे, वह जिन चयनित घटनाओं को पकड़ती भी है, उन्हें भी तोड़-मरोड़कर पेश करती है। और तीसरे यह कि, इसका परिणाम यह होता है, कि उस समूचे परिदृश्य की समझ लगभग उलट-सी जाती है। क्योंकि जिस सी.आई.ए. की वजह से ईरान में तख्तापलट होता है, और जिसके सहयोग से एक भ्रष्ट व्यवस्था को तीन दशक तक ईरानी लोगों पर थोपा जाता है, वही सी.आई.ए. इस फिल्म में हीरो की भूमिका में आ जाती है। वहीं दूसरी तरफ, उन कठिन दिनों को झेलने वाला ईरानी समाज खलनायक बन जाता है। और इन सबसे बढ़कर यह भी, कि इस फिल्म के द्वारा अमेरिका ने ईरान पर एक तरह का ‘कूटनीतिक हमला’ भी किया है। आज अमेरिका की नजर ईरान पर है, और समूचे खाड़ी-क्षेत्र में वही एक ऐसा देश है, जो अमेरिकी नीतियों को चुनौती देता आया है। संयुक्त राष्ट्र-संघ और योरोपीय संघ के साथ मिलकर अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंधों के सारे हथियार आजमा लिए हैं। अब इस फिल्म के सहारे सांस्कृतिक मोर्चे पर दुनिया भर में यह भ्रम फैलाया जा रहा है, कि ईरानी लोग असभ्य होते हैं, इसलिए उन्हें सबक सिखाया ही जाना चाहिए, और यह सबक ‘छल, बल और कल’ किसी भी तरीके से सिखाया जाना वाजिब है। हॉलीवुड फिल्म उद्योग ने इस ऑस्कर पुरस्कार के द्वारा अमेरिकी विदेश नीति के इन्हीं लक्ष्यों को संरक्षित किया है, न कि कला का सम्मान।

अमेरिका का प्रत्येक उद्योग इसी तरह से संचालित होता है, गोया दुनिया की सारी जिम्मेदारी उन्हीं के ऊपर हो। हॉलीवुड भी इससे अछूता नहीं है। वहां की फिल्मों में पूरी दुनिया को देखने का चलन बहुत पुराना है। वे इसे अपनी जिम्मेदारी भी मानते हैं। लेकिन जब उस दुनियावी दखल में अमेरिकी भूमिका की बात आती है, तो उनकी फिल्में मौन साध लेती हैं। और जब कोई फिल्म यह साहस दिखाती है, तो उसे किनारे कर दिया जाता है। ऑस्कर पुरस्कारों के 85 वर्षों की समूची सूची इस बात की गवाही देती है, कि उसने किस तरह से उन फिल्मों को किनारे किया है, जिनमें अमेरिका की दुनियावी दखल का खुलासा होता है। और साथ ही साथ यह भी, कि किस तरह से उन फिल्मों को पुरस्कृत किया गया है, जिन्होंने बदनाम अमेरिकी चेहरे को चमकाने का काम किया है। एक सवाल यहां यह खड़ा हो सकता है, कि आप अमेरिकी फिल्म उद्योग से यह अपेक्षा ही क्यों करते हैं कि वह अपने देशहित को छोड़कर एक निष्पक्ष नजरिये का प्रदर्शन करे। उसका फिल्म उद्योग यदि अपने देश के चेहरे को चमकाता है, तो इसमें गलत क्या है? बिलकुल … इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन दुनिया भर में यह ‘मोह और भ्रम’ क्यों पाया जाता है, कि ये पुरस्कार श्रेष्ठ फिल्मों को प्रदान किए जाते हैं और भारत जैसे देशों में टी.वी.चैनलों पर लाइव दिखाकर तथा समाचारपत्रों में उनकी खबरें पाटकर यह ‘पागलपन’ क्यों बढ़ाया जाता है? यह ठीक है, कि अमेरिका में बनने वाली फिल्म अमेरिकी दृष्टि से ही निर्मित होगी, लेकिन यदि वह दृष्टि ‘इतिहास के निरस्तीकरण’ और ‘फिल्म द्वारा पुनर्लेखन’ तक पहुंच जाए, तो उसे बेनकाब किया जाना चाहिए। ऐसे में यह जरूरी है, कि हॉलीवुड फिल्म उद्योग के इस खेल को न सिर्फ समझा जाए, जो वह ऑस्कर के माध्यम से खेलती आई है, वरन उसे खारिज भी किया जाए। आर्गो नामक फिल्म इसी खेल का हिस्सा है, और इसलिए इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

साभार : समयांतर 

रामजी तिवारी ने यह लेख 2013 में ऑस्कर पुरस्कारों की घोषणा के बाद लिखा था. वे बलिया (यूपी) में रहते हैं और पेशे से सरकारी कर्मचारी हैं लेकिन साहित्य, सिनेमा और सरोकार में उतने ही 'खेतिहर किसान'.  उनकी 2012 में ऑस्कर पुरस्कारों पर उनकी किताब 'कठपुतली कौन नचावे' काफी चर्चा में रह चुकी है. इसके अलावा वे साहित्य को समर्पित सिताब दियारा ब्लॉग भी चलाते हैं.

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