शुक्रवार, 27 जून 2014

'प्रतिशोध' नहीं प्रतिरोध का सिनेमा !


बनारस फिल्म सोसायटी / प्रतिरोध का सिनेमा
एम गनी


नेल्सन मंडेला , जैनुल आबेदीन, बलराज साहनी , रेशमा,
फारूख शेख और अमरकांत को समर्पित
तीसरा बनारस फिल्मोत्सव / दूसरा दिन / 23 फरवरी 2014

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इंटर नेशनल हिन्दू स्कूल , नगवा , वाराणसी 
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तीसरे बनारस फिल्म महोत्सव का दूसरा दिन, सवालों का दिन रहा. रविवार को मौसम तो साफ़ रहा लेकिन महोत्सव में प्रदर्शित हुई फिल्मों ने दर्शकों के मन में जबरदस्त सवाली बादलों को जन्म दिया.
तीसरे बनारस फिल्मोत्सव के दूसरे दिन एंगस गिब्सन और जो मेनेल निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म मंडेला दिखाई गयी. जो नेल्सन मंडेला के जीवन संघर्ष और साउथ अफ्रीका की आजादी को रेखांकित करती है. इस फिल्म को लगभग दो सौ घंटे की वास्तविक वीडियो फुटेज और सौ घंटे की आर्काइव सामग्री के सहयोग से बनाया गया है. कई वैश्विक सम्मान पा चुकी यह दस्तावेजी फिल्म 1997 में सर्वोतम डाक्यूमेंट्री फिल्म की श्रेणी में अकादमी पुरस्कार के लिए भी नामित हो चुकी है. ‘लोकतंत्र के प्रतिक’ नेल्सन मंडेला की पूरी जीवन यात्रा पर आधारित 114 मिनट की यह फिल्म उनके बचपन, शिक्षा, २७ वर्ष तक जेल प्रवास व रंगभेद के संघर्ष को रेखांकित करती है.
दर्शकगण
महोत्सव की दूसरी फिल्म सुरभि शर्मा द्वारा निर्देशित ‘बिदेसिया इन बम्बई’ रही. यह फिल्म अपने विशेष रचनात्मकता के जरिये भोजपुरी संस्कृति और ‘शहरीपन की राजनीतिक परिदृश्य’ को एकदम नये तरीके से पर्दे पर उकेरती है. साथ ही फिल्म बम्बई के माहौल की राजनीतिक आलोचना भी करती है. फिल्म इसके लिए ‘बिदेसिया’ समाज के लोगों पर फोकस करते हुए उनके जीवन संघर्ष को नये नजरिये से सेल्युलाइड पर उतारती है.
इसके बाद जिस डाक्यूमेंट्री फिल्म क्लिपिंग ‘मुजफ्फरनगर टेस्टमोनियल’ की सबसे ज्यादा चर्चा थी उसका प्रदर्शन किया गया. इस प्रदर्शन के बाद विशेष तौर पर बनारस आये एम गनी ने दर्शकों से संवाद किया. इस दौरान दर्शकों ने मुजफ्फरनगर दंगो की कलई खोलती इस फिल्म को आधार बना अपने सवालों की झड़ी लगा दी. सवालों के जवाब देने के क्रम में फिल्म के कैमरा परसन एम गनी ने प्रतिरोध की संस्कृति और उससे जुड़े अभियानों पर भी अपना विस्तृत नजरिया रखा.
इस वर्ष के फिल्म महोत्सव में बनारस के युवा फिल्मकारों को भी अपनी प्रतिभा को जनता के बीच प्रदर्शित करने का मौका दिया. प्रयोगधर्मी फिल्मो के सत्र में बनारस के युवा फिल्मकारों की 8 फिल्में प्रदर्शित की गयी. विवेक सिंह की “आखिरी चिठ्ठी”, विक्रम, सौम्य, शैवाल व बोनी की “कागज़ की कश्ती”, अतुर अग्रवाल की “द जर्नी ऑफ़ लाइफ”, मुकेश तिवारी की “दिलीप”, रोहिताश की “खौफ-द टेरर”, हिबा फरहीन, अंजू कुमारी, एलेना मलोवा की “साड़ी वीविंग”, निमित सिंह की “ए वर्ल्ड विदआउट बाउंड्री” एवं पंकज चौधरी की “घरियाल कंजर्वेशन” डाक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई गयी.
फिल्मोत्सव की अंतिम फिल्म ईरानी फिल्मकार बहमान घोबादी की “हाफ मून” रही. बहमान घोबादी ईरानी सिनेमा के नयी धारा के प्रतिनिधि माने जाते हैं. ११४ मिनट की “हाफ मून” में बहमान लालफीताशाही व देहाती संस्कृति के ज़रिये एक बूढ़े व्यक्ति के जीवन संघर्ष को बेहद संवेदनशील तरीके से दिखाते हैं. फिल्म कई जगह ईराक-ईरान को बांटने वाली सीमा रेखा पर भी सवाल उठाती है. पीपुल्स च्वायस अवार्ड सहित दर्जनों इंटरनेशनल पुरस्कारों से नवाजी गयी इस फिल्म में ईरान के नामचीन कलाकारों ने काम किया है.
फिल्मोत्सव का समापन बनारस फिल्म सोसायटी से जुड़े युवा कलाकारों के जनगीतों की प्रस्तुति के द्वारा हुआ. जनगीतों में साहिर लुधियानवी का ‘ये किसका लहू है ये कौन मरा’, गोरख पांडे का ‘समाजवाद का गीत’ व शलभ श्रीराम सिंह का ‘इंकलाबी गीत’ शामिल रहा.
आठ युवा फ़िल्मकार जिनकी फ़िल्में प्रदर्शित की गयी 
समापन के मौके पर गाजीपुर से पोस्टर प्रदर्शनी लेकर आये संभावना कला मंच, इंटरनेशनल हिन्दू स्कूल व फोटो एक्जीबिसन के प्रस्तुतकर्ता को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया. अंतिम में चौथे बनारस फिल्मोत्सव के वादे और सोसायटी के सदस्यों के परिचय से महोत्सव संपन्न हुआ. दूसरे दिन का संचालन दिव्यांशु श्रीवास्तव ने किया.

-अमृत सागर 

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